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परस्परविरोधी गुणो से युक्त परमात्मा
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का भय मिटा देना भाव-अभयदान है, अथवा अपनी आत्मा को परपदार्थो से निर्भयता का दान देना प्रकट करना भी अभयदान है, यह निश्चयदृष्टि से अभयदान प्रभु मे करणा का ही लक्षण है। व्यवहारदृष्टि से देखा जाय तो प्रभु के पास जो भी जीव आ जाता है, वह उनकी परम अहिंसा के कारण निर्भय हो जाता है। उमे ऐमी प्रतीति हो जाती है कि मैं अभय हो गया है। अर्हन्त परमात्मा का एक विशेपण 'नमोत्थुण' के पाठ मे आता है'अभयदयाण' और अभयदान परमात्मा की करुणा का द्योतक चिह्न है।
ज्ञानादि गुणो पर आजानादि के छाए हुए आवरणो-वैभाविक गुणो को दूर करने के लिए एक तरफ से आत्मा के स्वाभाविक गुणो को प्राप्त करते है, अज्ञानादि को कठोरता से हटाते हैं, दूसरी ओर परभावो (पुद्गलो) को पराया (शत्रु) मान कर बार-बार उन्हे त्याज्य समझ कर छोडने का विचार किया करते है, रवभाव मे तीव्रता से रमण किया करते है। इसके कारण पुद्गलो (परभावो) के प्रति उनकी कड़ी आँप है, जो उनकी तीक्ष्णता का लक्षण है। इसी प्रकार समार के स्वरूप का विचार करते हैं तो मालूम होता है, प्राय सभी कार्य (व्यापार, धन्धा, नौकरी आदि) प्रेरणा पर आधारित है। वे इस स्वरूप को जानते हैं और कोई निन्दा करे या प्रणसा, भला कहे या बुरा, वन्दना करे, या निंदा करे, सभी मे निरपेक्ष हो कर किसी भी प्रेरणा के विना महजभाव से आत्मपरिणतिरूप वृति-कर्तव्य मे निष्ठा रखते है । यह पदार्थ इष्ट, प्रिय या मनोज्ञ है, यह अनिष्ट, अप्रिय या अमनोज है, इस प्रकार की प्रेरणा प्रभु मे नहीं होती। लिए उनमे विना किमी प्रेरणा के स्वरूपरमण क्रिया होती रहती है। यह उनकी उदासीनता का लक्षण है।
इस प्रकार वीतरागप्रभु मे पूर्वोक्त तीनो विरोधी गुण एक साथ रहते है, क्योकि उनके पात्र अलग अलग है। अगली गाथा मे वीतरागप्रभु मे अन्य गुणो की त्रिभगियो का अस्तित्व हुए कहते है
शक्ति व्यक्ति त्रिभुवन-प्रभुता, निन्थता सयोगे रे। योगी, भोगी, वक्ता, मौनी, अनुपयोगी उपयोगे रे ॥
शीतल०॥