________________
११ : श्री श्रेयांसनाथ-जिन-स्तुतिअध्यात्म का आदर्श : प्रात्मरामी परमात्मा
(तर्ज-अहो मतवाले साजन, राग गौडी) श्रीश्रेयांसजिन अन्तरजामी, आतमरामी, नामी रे। अध्यातम-पद' पूरण पामी, सहज मुगतिगतिगामी रे॥
श्री श्रेयांस ०॥१॥
अर्थ
श्री (ज्ञानलक्ष्मी) युत् श्रेयांसनाथ नामक ग्यारहवें तीर्थकर (रागद्वषविजेता) अन्त करण के भावो के ज्ञाता है , आत्मा मे रमण करने वालो मे श्रेष्ठ हैं। अथवा सार्थक नाम वाले हैं, या भावकर्मरूप शओ को नमाने-झुकाने वाले हैं। अध्यात्मपद (ज्ञान) की पूर्णता पहुँच कर अनायास ही मोसगतिगामी बन गये हैं।
भाष्य
अध्यात्म की पूर्णता पर पहुँचे हुए . परमात्मा पूर्वोक्त स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा के विभिन्न परस्परविरोधी गुणो की त्रिपुटियाँ बता कर उक्त गुणो को प्राप्त करने की बात कही है, इस स्तुति में परमात्मा के उक्त गुणो की पूर्णता तक पहुँचने के लिए अध्यात्मआत्मा के पूर्ण विकास) के हेतु परमात्मा का आदर्श अपनाना आवश्यक बताया है। जब तक आदर्श सामने न हो तब तक कोई भी साधक वहा तक पहुँचने के लिए उत्साहित नहीं होता। अध्यात्म के विपय मे भी यही बात है। जगत् मे विभिन्न धर्मो, मतो, पथो और सम्प्रदायो के लोग अध्यात्म की रट लगाते है । वे आत्मा के वारे मे जरा-सी जानकारी प्राप्त करते ही अपने को अध्यात्मवादी या अध्यात्म ज्ञानी घोपित कर देते हैं। श्रीआनन्दघनजी इस स्तुति द्वारा अभिव्यक्त कर रहे
१ कहीं कहीं 'पद' के बदले 'मत' शब्द मिलता है, तव, अध्यातम-मत पूरण
पामी' का अर्थ होता है-आत्मविकास के पथ के सिद्धान्त को पूर्णरूप से प्राप्त करके।