________________
परस्परविरोधी गुणो से युक्त परमात्मा
२२१
परमात्मा के इन गुणो पर चिन्तन करते-करते गानन्द आश्चर्य से भर जाता है कि एक ही आत्मा मे इतने गुण कहाँ से आ गए ? छोटी-सी, अव्यवत, अमूर्त, अदृश्य आत्मा मे इतने गुणो के धारण करने की शक्ति कहाँ से आ गई ? दूसरा महत्त्वपूर्ण लाभ सामान्यतया और विशेपतया प्रभुगुणत्रिपुटियो के वार-बार के चिन्तन से आत्मा की अनन्त आश्चर्यकारी ज्ञान-सम्पदा विकसित हो जाती है, आत्मा अपनी सुपुप्त ज्ञान-शक्ति को प्रगट करके स्वय स्वस्वरूप मे या शुद्धरूप मे, अथवा आत्मगुणो मे रमण करने मे एकाग्र हो जाता है, और इस प्रकार के ऊहापोह मे एकाग्र होने से उसे केवलज्ञान प्राप्त हो कर एक दिन आनन्दघनमय परमात्मपद या मोक्षपद प्राप्त हो जाता है। चूंकि स्याद्वाद-शैली के बिना जीवन और जगत् का या आत्मा-परमात्मा का सम्यग्ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान होने का राबूत राम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन मोक्ष की प्राथमिक भूमिका है। जिसे सम्यग्दर्शन हो गया, उसे मोक्षप्राप्ति अवश्य हो जाती है। दूरारे शब्दो में कहे तो इस प्रकार विभिन्न पहलुओ से परमात्मा के गुणो का चिन्तन करने से चिन्तनकर्ता की आत्मा भी स्वत स्वाभाविकरूप से उन गुणो की ओर झुकेगी, और एक दिन वह आश्चर्यकारक विचित्र गुणत्रिभंगी-चिन्तन से आनन्दघनमय प्रभुपद को प्राप्त कर लेगी।
इसी प्रकार की अन्यान्य गुणनिपुटियो का चिन्तन करो यही कारण है कि श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा के जीवन मे उपयुक्त गुणत्रि भगि यो के सिवाय, ऐगी ही अन्य गुण-विभगियो का चिन्तन करने का सकेत शिया है। परमात्मपदप्राप्ति के इच्छुक को और भी गुणत्रिपुटियो चिन्तन करना चाहिए। उदाहरण के तीर पर-वीतरागप्रभु कामी भी है, क्रोधी भी है और अकामी-अक्रोधी भी है। सर्वप्रथम दृष्टिपात मे तो परमात्मा के लिए कामी शब्द सुनते ही व्यक्ति चौक उठता है, परन्तु गहराई मे विचार करने पर उसका यह भ्रम दूर हो जाता है। प्रभु कामी इसलिए है कि वे स्व (आत्म) स्वरूप की कामना वाले होते है । क्रोधी इसलिए हैं कि वे मोह, राग, द्वेप, काम आदि आत्मगुणनाशक अन्त शत्रुओ को कठोरतापूर्वक खदेड देते हैं । किन्तु साथ ही वे अकामी इसलिए है कि वे आत्मा के प्रतिकूल परपदार्थ को ग्रहण करने की कामना नहीं रखते, तथा वे अक्रोधी इसलिए हैं कि