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अध्यात्म-दर्शन
है। यहां श्रीआनन्दघनजी ने चौथे प्रकार गो गूजा--प्रतिपत्तिपूजा बताई है। ___ यहाँ 'चउहा पूजा' का अर्थ चौधी (चतुर्थी) गूजा है, जोकि उत्तराध्ययनमूत्र की वृत्ति में प्रतिपत्ति का उल्लेख है। वहीं अनाणातनाविनय को प्रतिपत्ति कहा गया है।
प्रतिपत्तिपूजा की व्याग्या ग प्रकार है
उत्तराध्ययनमून की वृत्ति मे विनय के प्रगग गे प्रतिगति सामर्थ अनाशातनाविनय बताया है।
ललितविस्तरा वृत्ति नादि में प्रतिपत्ति का अर्थ 'प्रतिपत्ति अविकलाssप्तोपदेशपालना' किया है । यानि आप्तपुरुषो के उपदेश का अखण्ट (अधिरून) रूप से पालन करना प्रतिपत्ति है। यह अर्थ व्यवहारमय की दृष्टि में मगन है। किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से प्रतिपत्ति का अर्थ होता है--परमात्मा को आत्मभाव से अगीकार करना अथवा आत्मा के गुणों का गमयरूप में अनुभव करना, परमात्मा मे स्वस्वन्ग ना गवेदन यथार्थम्प गे गरना परिणत्तिपूजा है।
प्रतिपत्तिपूजा के अधिकारी प्रतिपत्तिपूजा भी भावपूजा का विशिष्ट अग है, जिन्तु उगक अधिकारी ११ वे गुणस्थान में स्थित उपगान्लमोही होते है, जिना तमाम नपायभाव उपशान्त हो जाते है, अथवा १२ वे गुणन्यान गे स्थित क्षीणमोती है, जिनके तमाम कंपायभाव क्षीण हो चुके होते है, अथवा तेरहवें गुणन्धान में स्थित : सयोगी-केवली भगवान् है, प्रथम दो कोटि के महान् आत्मा आत्मगुणो का यथार्थरूप से अनुभव कर लेते है, अथवा यथाय्यात-चारित्री होने के कारण वीतरागगरमात्मा के उपदेश का वे अविकलरूप से पालन करते है, अथवा वे पूर्णता के पथ पर होने मे वीतरागपरमात्मा की जरा भी आशातना या आज्ञा की अवहेलना नहीं करते। अन्तिम सयोगी-केवनी तो सदेहमुक्त वीत-राग हो जाते है, और वे आत्मा-परमात्मा के गुणो का साक्षात् अनुभव करते है और यथाख्यातचारित्री होने से वे अविकलरूप मे आज्ञापालन करते है। । इस प्रकार परमात्मपूजा के चार प्रकार श्रीआनन्दघनजी ने इस स्तुति मे बताए हैं-अगपूजा, अग्रपूजा, भावपूजा और प्रतिपत्तिपूजा। किन्तु