________________
परम्परविरोधी गुणो से युक्त परमात्मा
२०६
मानता है, और न उसकी पूजा का विधान करता है, उसे अमुक नामो से कोई पक्षपात नहीं है, किन्तु वह आन्तरिक गुणो आत्मिक वैभव, रागद्वेषरहितता आदि अन्तरग रूप को ही महत्त्व देता है। इसी कारण आप्त मीमासा मे जैनाचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट कहा है-१ प्रभो । आपके पास देव आते हैं, आप आकाश में उडते है, आपके पास छप, चामर आदि विभूतियाँ हैं, इनसे आप हमारे लिए महान् (विश्वपूजनीय) नही है, क्योकि ये सव वाह्य वैभव या चमत्कार आदि तो एक जादूगर मे भी पाये जा सकते हैं ।"
जैनधर्म तो गुणो का पूजारी है। 'जिसमे वीतरागता के गुण हो, यानी ससार के बीज को अकुरित करने वाले राग-द्वेषादि दोप जिसके नष्ट हो गए हो, फिर वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, हर हो, बुद्ध हो, या जिन हो, उसे नमस्कार है।'
इस दृष्टि गे परमात्मा की परीक्षा वाह्य स्प, वैभव, विलास व ठाठबाठ या चमत्कार से न करके वीतरागता आदि अन्तरग गुणो की परिपूर्णता मे करनी चाहिए। परन्तु कई वार वीतराग-परमात्मा मे विरोधी गुण देख कर उनसे घबराना नहीं चाहिए, अपितु अनेकात व सापेक्षदृष्टि से विचार करके विरोधी प्रतीत होने वाले जताग गुणो का परस्पर सामजस्य बिठा लेना चाहिए।
प्रथम गाया मे श्री वीतराग प्रभु [१० वे नीर्थकर श्रीशीतलनाथजी] के माध्यम ने उनके जीवन मे विविध भागमगियो [दृप्टियो] वाली मनोरम विभगियो का उरलेख करते है। यानी वीतराग प्रभु हमारी पूजा के आदर्श है [फिर भले ही वे चाहे जिस नाम के हो], हमारे लिए पूजनीय हैं। एक ओर उनमे अतरग गुण हैं-करुणा और कोमलता, जबकि दूसरी ओर ठीक इससे विरोधी गुण-तीक्ष्णता और उदासीनता भी हैं।
-देवागमस्तोत्र
१. देवागम-नभोयान-चामरादि-विभूतय. ।
मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ॥ २. भवबीजाकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य ।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो, जिनो वा नमस्तस्मै ॥ -
-आचार्य हेमचन्द्र