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परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा
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वस्तुएँ पहनी हो तो वे साफ व सादी हो, (३) बिना मिले हुए एक अखड उत्तरीय बरन (चादर) को मुख मे मयुक्त करना यानी उमे मुख पर लगाना, ताकि मुख का उच्छिष्ट पूज्य पर न पडे । (८) चाहे जितनी दूर से इष्टदेव या गुरु पर दृष्टि पडते ही तुरन दोनो हाथों को अजलिबद्ध (जोड) करके नमस्कार करना और (५) मन को इन्द्रियो के बाह्य विपयो से हटा कर परमात्म देव या गुरु के प्रति एकाग्र करना।
इन पात्रो अभिगमो का पालन द्रव्यपूजा की दृष्टि से तो मन्दिर मे प्रवेश करते समय करना आवश्यक हे ही, भावपूजा की दृष्टि मे हृदयमन्दिर मे प्रभुपूजा के लिए प्रवृत्त होते समय भी ये पालनीय हैं । यानी प्रभुपूजा के लिए शुद्ध आसन पर बैठते समय भी पूर्वोक्त पाचो अभिगमो का आचरण करना आवश्यक है।
सवसे मूल बात तो यह है कि परमात्मपूजा के समय मन एकाग्न होना चाहिए । इसी बात को श्रीआनन्दघनजी प्रकट करते हैं--"एकमना धुरि थइए रे ।" सी बात की एक बात है कि पूजा के समय सबसे पहले यह अवश्यकरणीय है कि मन को तमाम सासारिक वातो, चिंताओ, व्यापारो व ऊलजलूल विचारो मे हटा कर प्रभु के स्वरूप मे, उनके गुणो के चिन्तन मे जोड देना चाहिए। अगर मन कही और घूम रहा हे और शरीर व वचन मे प्रभुपूजा हो रही है, तो उसमे आनन्द नहीं आएगा। वह एक प्रकार की वेगार होगी। उसमे आनन्द व मस्ती नहीं आएगी। जैसे-तैसे पूजाविधि पूरी कर लेना तो भाडै त लोगो का काम है, अथवा एक प्रकार का दिखावा है, उममे दम भी आ सकता है। इस प्रकार की अन्यमनस्क पूजाविधि से यथार्थ लाभ, या शुभकरणी का मम्पादन नहीं हो सकता | प्रभुभक्ति की मस्ती मे मन इतना तन्मय हो जाय कि वाहर की हलचलो का, यहाँ तक कि अपने शरीर, खानपान, नीद आदि का भान भी न रहे, दुनियादारी की चीजो का मन मे विचार ही न आए, तभी परमात्मपूजा मे एकाग्रता कही जा सकती है। परमात्मा के शुद्ध आत्मभावो,
३ सनातन या वैदिकादि धर्मों में भी सन्ध्यावन्दन या उपासना के समय कुछ
मर्यादाओ का पालन अनिवार्य होता है।