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सध्यात्मन्दमाग
को समपित करके, आपके फेवन-वानन्पी दीपणा की ली ग अपने मात्मदीप को जलाने के लिए लाया है।
धूप देते समय अन्तर गे यह भावना हा कि प्रमी । म चुप (वा अगस्वती) की तरह स्वय जन कर दूगरो तो मौरभ पार गणों में अपनी गुकानियो की यश मौरभ चटा दू । धूप की नन्ह निर्गममानभार गे परोपकारी अपने आपको लगा दू। निश्चयदृष्टि में धूप दें गमय विचार यार मेरी गह मिध्या प्रालि रही बिजकर्म मुझे घमाता है, में जब पी परिणति के मनुष्य हो कर अपने को रागीपी बना लेता है। इस प्रकार में गदियों में भावकर्म या भावमरण करता आया ।किन अब जापरे चारणों में आ कर इन धूप मे यह नीख न्हा हूँ कि जगनी आत्मा की रबस्वम्पाचरणम्पी गन्ध को अपनाऊं एव परगन्ध (वैभाविक परिणति) को जला दू।'
फल-समर्पण के समय विचार करे कि प्रभो ! मैं अपने प्रत्येक सत्कार्य वा फल आपके चरणो में न्यौछावर कर रहा हूँ। मेरा अपना कुछ नहीं है, तब आपका ही है । मैं स्वय-कन त्व के अभिमान ने रहित हो कर फन की तरह समर्पित हो रहा हूँ । जथवा मुझे जो भी शुभ फल विश्व-उद्यान में मिले हैं, उन्हें मैं विश्व को बांट दू।
निश्चयदृष्टि से यह सोचे कि प्रभो। जिन में अपना कहता हूँ, वह मुझे छोड़ कर चल देता है। मैं इससे व्यधित और व्याकुल हो जाता हूँ, जिसका फल व्याकुलता है । अन प्रभो! मैं शान्त, निराकुल चेतन हूँ, मुक्ति मेरी सहचरी है । यह जो मोह-ममत्व है, वह फल की तरह पक कर आत्मवक्ष से टूट पडे और आपके चरणो मे समर्पित हो जाय । इसी मे मेरी साथकता है।
नवेद्य (मिष्टान्न आदि पदार्थ) चढाते समय सोचे कि प्रभो । मैं ससार की समस्त वस्तुओ को अपनी मान कर उनमे आसक्त रहता हूं, पर अब पदार्थ के प्रति वह ममता और अहता नाप के चरणो मे नैवेद्य के रूप मे मर्पित कर रहा हूँ। 'निश्चयदृष्टि से यह सोचे कि प्रभो ! अब तक अगणित जडद्रव्यो (परभावो) से मेरी भूख नही मिटी, तृष्णा की खाई खाली की खाली रही, युग-युग से मै इच्यासागर मे गोते खाता आया, आत्मगुणो का अनुपम रस छोड कर पचेन्द्रिय