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परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा
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चढाना, चौथी पूजा दशाग धूप की, पाचवी दीपक की, छठी पूजा चावल की सातवी फलो की और आठवी पक्वान्न आदि, नैवेद्य चढाने की प्रथा है। , परन्तु इन दोनो प्रकार की पूजा के साथ भावहीनता हो तो . उसका यथेप्ट और यथोचित फल नहीं मिलता। इसलिए श्रीआनन्दघनजी ने इस गाथा मे स्पष्ट कह दिया है-'भावे भविक शुभगति वरी रे'। भविकजीव इस अष्टप्रकारी पूजा को भावो से ओतप्रोत हो कर करेगा, तभी सुगति प्राप्त करेगा।
पूजायोग्य द्रव्यो को भावो के धागे मे कैसे पिरोएँ ? यद्यपि यह अष्टप्रकारी पूजा भी द्रव्यो का आलम्वन ले कर की जाती है, तथापि इन सवको भावो के धागे मे पिरोने का अभ्यास करना चाहिए। अन्यथा, न तो चित्त मे प्रसन्नता होगी, न पूज्यदेव के साय आत्मीयता होगी और न ही पूजा का उद्देश्य सिद्ध होगा। ऐसी भाववाहिनी पूजा के अतिरिक्त कोरी द्रव्यपूजा यात्रिक, रुढिग्रस्त एव कभी-कभी प्रदर्शन होनी सभव है। इसलिए प्रत्येक द्रव्य के साथ-साथ हृदय के भावो का तार जुडना चाहिये।
जैसे पूर्वोक्त अष्टप्रकारी पूजा में क्रमश जल से प्रभुप्रतिमा का अभिषेक करने या जल चटाने का रिवाज है। वैष्णवपूजाविधि मे पाद्य, अर्घ्य, आचमन, और स्नान (अभिषेक) के लिए ४ चम्मच इसलिए चढाए जाते हैं कि हम अपना श्रम, मनोयोग, प्रभाव एव धन इन चारो उपलब्धियो का यथासम्भव अधिकाधिक भाग वीतराग-परमात्मीय प्रयोजन के लिए समर्पित करें । चंकि जल शीतलता, शान्ति, नम्रता, विनय एव सज्जनता का प्रतीक है, । अत मत्त्रयोजनो के लिए मैं समय लगाऊँगा, श्रमविन्दुओ का समर्पण करूंगा।
यह तो हुई व्यवहारनय की दृष्टि से बात । निश्चयनय की दृष्टि से जल चढाने के समय यह भाव आने चाहिए कि प्रभो । मैं अब तक यह नहीं अनुभव कर पाया कि मैं शुद्ध, वुद्ध, चैतन्यघन हूँ, ये इन्द्रियो के मधुर विषय विपसम है, यह लावण्यमयी काचनकाया भी क्षणभगुर है, यह सब कुछ जड की क्रीडा है, चैतन्य का इससे क्या वास्ता? इस बात को और स्वय के आत्मवैभव को भूल कर मैं महत्व-ममत्व मे फस गया था। परन्तु अव में आपके सान्निध्य मे सम्यक्-जल ले कर उस मिथ्यामल को धोने आया हूं। इसके पश्चात् चन्दन,
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१. 'यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्या.'