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६ : पद्मप्रभजिन-स्तुति- आत्मा और परमात्मा के बीच अंतर-भंग . (तर्ज-चाँदलिया, सन्देशों कहेजे मारा कान्त ने राग मारु व सिन्धुडो)
पद्मप्रभ जिन , तुझ मुझ आंत रे, किम भाजे भगवन्त ? , , कर्मविपाके कारण जोईने रे, कोई, कहे मतिमन्त ।
पद्मप्रभजिन० ॥१॥
अर्थ, ''हे पद्मप्रभ, वीतराग परमात्म देव । आपके और मेरे बीच मे जो अन्तर (दूरी) पड गया है, 'हे भगवन् | वह अन्तर कैसे दूर (नष्ट) हो सकता है ? कर्मफल का ज्ञाता कोई बुद्धिमान पुरुष (परमात्मा और आत्मा के बीच मे दूरी का कारण कर्मों को जान कर) कहता है—कर्मों का परिपाक (कर्मफलभोग) होने पर ही यह अन्तर मिट सकता है ।
भाष्य - परमात्मा और आत्मा के बीच मे दूरी का कारण . कर्म इससे पहले की स्तुति मे बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का लक्षण बता कर वहिरात्मभाव को छोड कर अन्तरात्मा मे स्थिर होकर आत्मा में परमात्मत्व की भावना करने से परमात्मपद की प्राप्ति वताई गई थी, उसमे स्पष्ट हो गया कि सामान्य जीव जब तक बहिरात्मा बना रहेगा, तव तक उसके और परमात्मा के बीच मे बहुत ही दूरी रहेगी। अत अब इस स्तुति मे उसके सम्बन्ध में दो प्रश्न उठाये गये हैं-नहला प्रश्न यह है कि परमात्मा और सामान्य आत्मा के बीच मे जो दूरी है, वह किस कारण से है ?
और दूसरा यह कि वह अन्तर कैसे दूर हो सकता है ? - निश्चयनय की दृष्टि से यह बात तो म्पष्ट है कि "अप्पा सो परमप्पा' .'आत्मा ही परमात्मा है।' और यह वात भी यथार्थ है कि जिस जीवात्मा