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परमात्मा का मुखदर्शन
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सुर-तिरि- निरय-निवासमा, स०; मनुज-अनारज साथ । स० । अपज्जत्ता प्रतिभासमां, सखि०, चतुर न चढ़ियो हाथ ॥ सखी० ॥४॥ इम अनेक थल जारणीए, स०; दर्शन-विणु जिनदेव; स० । आममथी मत जाणीए, स०, कीजे निर्मल-सेव ॥ स०॥५॥
अर्थ हे सखी। मैने सूक्ष्म निगोद (साधारण वनस्पतिकाय) मे परमात्मा के मुखचन्द्र को नहीं देखा, और बादरनिगोद (साधारण वनस्पतिकाय के वादर निगोद) मे भी खासतौर से उनका मुख नहीं देखा। तथा पृथ्वीकाय और
अप्काय नामक एफेन्द्रियजीव के रूप में भी प्रभुमुख के दर्शन नहीं किये और तेजस्काय (अग्निकाय) और वायुकाय के भव मे भी मुझे लेशमात्र दर्शन नहीं हए। ॥२॥
प्रत्येक वनस्पतिकाय (वृक्ष आदि) के रूप मे बहुत लम्बे काल (दीर्घकाल) तक रहा, लेकिन हे ज्ञानचेतनारूपी सखी! मैने प्रभु का दीदार नहीं देखा। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रियो वाले जीव), त्रीन्द्रिय (तीन इन्दियो वाले जीव, और चतुरिन्द्रिय (चार इन्द्रियो वाले जीव) मे भी रहा, लेकिन वहाँ भी पानी पर खींची हुई लकीर की तरह (दर्शन के बिना) वृथा समय खोया, कुछ भी दर्शन पल्ले नहीं पडा । असजी (द्रव्यमन से रहित) पञ्चेन्द्रिय जीव के रूप मे जन्म धारण करने पर भी यही हाल रहा। ॥३॥
सज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-अवस्था में भी मै सुरगति (भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक, इन चार प्रकार के देवो की योनि) मे रहा, तिर्यञ्चगति (कुत्ते, बिल्ली, हाथी, घोडे आदि सज्ञी, तिर्य चपचेन्द्रिय जीवयोनि) मे रहा, तथा नित्य (नरक) गति (सातो ही नरको की नारकमूमियो) मे निवास किया; इसी प्रकार मनुष्यगति, प्रभुमुखदर्शन के योग्य सज्ञोपचेन्द्रिर मनुष्ययोनि) मे आया, लेकिन यहा अनार्यमनुष्यो का सहवास (सम्पर्क) मिला, तथा अपर्याप्त (सातो पर्याप्तियो की पूर्णता से होन) अवस्था मे एव प्रतिभासरूप पर्याप्त-अवस्था मे भी रहा, लेकिन चतुर परमात्मा मेरे हाथ नहीं आए, यानी सोंपञ्चेन्द्रिय की इन जीव-योनियो मे भी प्रभु-मुख के दर्शन से मैं वचित हो रहा । ॥४॥
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