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परमात्मा का मुखदर्शन
ज्येष्ठ, अथवा अध्यापक, राष्ट्रनेता या समाजमान्य पुरुप अथवा अन्य किसी वडे माने जाने वाले व्यक्ति के मुखदर्शन की आतुरता न हो कर परमात्मा के मुखदर्शन की ही आतुरता क्यो है ? इसका समाधान श्री आनन्दघनजी प्रभुमुख की दो विशेषताओ द्वारा प्रगट करते हैं-'उपशममरसनो कद तथा 'गतकलिमल-दुःख द्वन्द । तात्पर्य यह है कि सासारिक व्यक्ति, फिर वे चाहे कितने ही महान् क्यो न हो, जब तक छमस्थ हैं, तब तक रागद्वेप आदि विकारो या कर्मरूपी कीचड से मलिन बने हुए हैं, उनके जीवन मे कषायो की आग सुलगती रहती है, चाहे वह धीमी आच मे ही हो । इसलिए उनका मुखचन्द्र अनेक कपायो से सतप्त होने से यणात वना हुआ, कामादिअनेक विकारो या कमों व रागद्वेपादि से मलिन वदु खो से युक्त बना हुआ है, इसलिए उनका मुखचन्द्र भौतिक दृष्टि से भले ही सुन्दर या दर्शनीय हो, आध्यात्मिक दृष्टि से या आत्म-विकास की दृष्टि से उनका मुख दर्शनीय नही कहा जा सकता, जवकि परमात्मा का मुख पूर्णिमा के चद्रमा की तरह निप्कलक एव परिपूर्ण है, वह कपायो से रहित होने के कारण शान्तरस का मूल है, उसमे से शान्तसुधारस टपक रहा है। और उसमे रागद्वप, कामक्रोध आदि विकारो या कर्मों का मैल बिलकुल न होने से वह सभी प्रकार के कलक, क्लेश के मैल , या विकारो की मलिनता से सर्वथा रहित है । चन्द्रमा मे तो फिर भी कलक रह सकता है या उसकी कला मे घट-बढ हो सकती है, लेकिन प्रभु-मुखचन्द्र मे न तो कोई कलक रह सकता है और न ही उनके गुणो मे कोई घट-बढ हो सकती है । यही कारण है कि अन्य सासारिक मुखचन्द्रो को छोड कर यहाँ परमात्मा के शान्त, निर्मल, निर्विकार मुखचन्द्र के दर्शन की तीव्र उत्तष्ठा प्रदर्शित की है।
परमात्म-मुखचन्द्र से तात्पर्य यह कहा जा सकता है कि परमात्मा जव निरजन, निराकार एव अशरीरी सिद्ध हो गए, तव उनके मुख ही नही रहा, फिर उनके मुख-दर्शन की वात कमे सगत हो सकती है? वास्तव मे व्यवहार की दृष्टि से १३वे गुणस्थानसयोगीकेवली वीतरागप्रभु शरीरधारी होते हैं , उनके मुखचन्द्र के दर्शन का विधान यहां भूतनगमनय की दृष्टि से समझना चाहिए ।
निश्चयनय की दृष्टि से तो शुद्ध-सिद्व-स्वरूप, परमात्मा के शुद्धज्ञानरूप मुखचन्द्र का दर्शन समझना चाहिए। क्योकि दूसरे मुख तो सप्तधातु से बने
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