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परमात्मा का मुखदर्शन
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पूर्वगाथा मे योगावञ्चकता के लिए सच्चे देव की निर्मलसेवा की बात कही थी, उसी सन्दर्भ मे श्रीमानन्दघनजी इस गाथा मे सच्चे गुरु (निर्मल साधुसाध्वी) की भक्ति की बात कहते है। इसका तात्पर्य यह है कि सच्चे देव, सच्चे गुरु और सद्धर्म के योग (निमित्त) से कदापि वचित न हो, ऐसे अमोघ, या अचूक अवसरो को कदापि न चूके, साथ ही सम्यग्ज्ञानपूर्वक मोक्ष के अनुकूल धर्म क्रिया करने मे जरा भी गफलत न करे तथा मोक्षरूपी फल प्राप्त करने से न चूके । [रागद्वेप, कपाय, कर्म आदि से मुक्ति के जब-जब प्रसग आएँ, उन्हे न चूके, उन अवसरो से आत्मा को कदापि वचित न करे ।] यानी योग, क्रिया और फल के अवमरो से वचित न हो। दूसरे शब्दो मे यो भी कहा जा सकता है, अपनी आत्मा के प्रति वफादार रह कर परमात्मा की साक्षी से अपनी पूरी ताकत लगा कर (भरमक) योग, क्रिया और फल की आराधना से वचित न होने का प्रयत्न करे । अपनी आत्मा को ठगे नही । योग के नाम पर मिथ्यायोगो से न ठगा जाय, आत्मगुण या स्वरूप का लक्ष्य चूके नही। क्रिया के नाम पर फूठी, दभवईक, विकासघातक, परवचक क्रियाओ से ठगा न जाय, इसी प्रकार मोक्षरूपी फल के नाम पर अपने ध्येय को छोटा बना कर इहलौकिक या पारलौकिक सुख-साधनादि-प्राप्तिरूप फन से प्रमावित हो कर ठगा न जाय। मोक्ष के नाम पर विविध आडम्बरो या जन्ममरणवर्द्धक फलो मे लुभा कर आत्मवचना न कर बैठे।' योगदृष्टिसमुच्चय मे इन तीनो योगो का स्वरूप इस प्रकार बताया है-"दर्शनमात्र से पवित्र हो जाय, ऐसी कल्याणकारिणी सम्पत्ति से युक्त सतपुरुषो के सत्सग से, तथा दर्शन से योग (मिलन) होना योगाऽवचक योग कहलाता है। ऐसे सद्गुरुओ, सदेवो आदि को प्रणाम करना तथा अन्य मोक्षदायक अनेक सद्धर्मक्रियाओ या
सद्भि. कल्याणसम्पन्नदर्शनादपि पावन । तथा दर्शनतो योग आद्याऽवचक उच्यते ॥ तेषामेव प्रणामादि-क्रिया-नियम इत्यलम् । क्रियावचकयोग स्यान्महापापक्षयोदय. ॥ फलावञ्चकयोगस्तु सद्भ्य एव नियोगत । साऽनुवन्धफलावाप्तिधर्मसिद्धौ सता मता ॥
, -योगदृष्टिसमुच्चय २१७,२१८,२१६