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अध्यात्म-दान
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परमात्मपूजा के लिए नही जाना । लोप पवाद की दृष्टि पजागा पगति का वरप या यथार्य पूजाविधि नगझे बिना अथवा गरीर और पही, मन और कहीं भटक रहा हो, गनी चिगि गे गाना लिा प्रवृत्त सामी भावन अगुचिभाव है । वान्लव ने परमात्मपूजा या अर्थ, वेष, ग्वरूप, निधि आदि समल कर नियामय दोपरहिन भावों में तन-मन की रामनार उत्साहपूर्वक परमात्मपूजा के लिए जाना पगामा की हत्यामा में भावन गुचिभाव धारण करना है। __ क्योकि आचार्य नमि और आत्राय अमिनगति ने द्रव्यभाव-नोंच को परमात्मपूजा और वचनमयम को व हार-गैर पो, मन्ना आदि बगो क नभ्यविधिपूर्वक रीन को द्रव्यमकोच नया विशुद्ध मन प्रनु में जोडने को भावनलोत्र पहा है। पही क्रमशः द्रव्यपूजा और भावपूजा है ।
जवं मोशए परमात्मा की भावपूजा पन्त भमर द्रव्यत एव सावत शुचिभाव की ओर । भावपूजा को कुट प्रकार आगे उमी स्तुति में बताए जायेंगे। नदनुनार भावपूजा मे प्रवृत्त होते समय अपने शरीर, अगोपाग तथा । कने के आमन, पहिनने के वस्त्रो गदि का शुद्ध होना आवश्यर है। उन समय की जाने वाली शारीरिक चेष्टाएँ भी ठीक हो , उनमे चचलता या अभिमान न हो, व्यग्रता न हो। उस समय गदे स्थान में या अत्यन्त पोलाहलभरी भीडभड़क्के वाली मशान्त जगह में बैठना अयदा गदै वातावरण में, शारीरिक हाजनो को रख कर या उन्न बीमारी या घर में कोई बीमार या अशक्त की सेवा की जिम्मेदारी के समय उसी हालत में परमात्मा की भावपूजा के लिये बैठना ठीक नहीं होता। क्योक्ति उन ममय शरीर और नहीं होगा, मन और कही । दोनों का तार जुडेगा नहीं, परमान्म-पूजा में।' इसी तरह माला के मनके फ्रािने के साथ शरीर और मन को भी एकाग्र करना द्रव्य
वचोनिग्रह-संकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानससंकोचो भावपूजा हि पुरातनै. ।।
अमितगति-श्रावकाचार पूजा च द्रव्यभावसंकोच.) तत्र करशिरःपादादिसन्यासो द्रव्यसंकोच । भावसंकोचस्तु विशुद्धमनसो नियोग.। --पड़ावश्यकवृत्ति, प्रणिपातदण्डका