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अध्यात्म-दर्शन
भी स्वदेहस्थित हृदयमन्दिर में स्थापित करके ही भावना में उनकी पूजा की जाती है । वेदान्त-ग्रन्यो में दहराकार का वर्णन आता है कि आत्मा हृदय मे स्थिन दहराकाग में विराजमान है। जो भी हो, मावाजा के लिए हत्यमन्दिर परमात्मदेव कायालय हो सकता है।
परमात्मपूजा के लिए विधि परमात्मपूजा के लिए चैत्यवन्दन भाप्य, प्रवचनमागेहार आदि ग्रन्धी मे परम्परागत कुछ विधियां, मर्यादाएं बनाई गई है। श्रीयानन्दघनजी ने मूनिपूजा की उसी चालू परिपाटी के अनुसार दश प्रकार के निक एर पांच - अभिगमो के पालन का उरलेन यहां किया है, वह द्रव्यपूजा की दृष्टि से इन प्रकार है-~
(१) निसोहिनिक-देवालय (देहरासर) में प्रवेश करते समय तीन बार नैपेधिकी क्रिया करनी चाहिए । यानी में नव प्रकार के गृहकार्यसम्बन्धी या व्यापारसबन्धी वटपट या चिन्ताएं छोड़ (निषेध) करवे प्रवेश कर रहा हूँ. मैं हिंसादि समस्त मानमिक विचारो, बसत्यादि सब बचना एवं जशुभकायादि
चेष्टामो को देवालय के बाहर छोड़ कर इसमे प्रवेश कर रहा हूँ पूजा में प्रवृत्त हो रहा हूँ,वन्दन कर रहा हूँ । इस प्रकार नीन बार निसीहि. निसीहि, निशीहि शब्द का उच्चारण करे।
(२) प्रदक्षिणात्रिक- पूज्य को दाहिनी ओर रख कर उनके चारो ओर प्रदक्षिणा-परिक्रमा देना । यह पूज्यपुम्प के प्रति बहुमान का सूचक है । .
(३) प्रणामत्रिक-तीन प्रकार का तीन वार नमन प्रणामत्रिक कहलाता है। (१) अंजलिवद्धप्रणाम,-दो हाथ जोट कर झुकना , (२) अर्धविनत प्रणाम -जिस प्रणाम के समय आधा झुका जाय । (२) पचाग प्रणाम-दो हाथ, दो घुटने और मस्तक ये पांचो अग नमा कर झुकना।
२ मूर्ति मे परमात्मभाव का आरोपण करते समय लोगो की अश्रद्धा न हो, पूज्यभाव बना रहे, लोगो के लिए वह हसी का पात्र न हो, उस दृष्टि से सभव - है, यह विधान हो।