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८ श्रीचन्द्रप्रभजिन-स्तुति
परमात्मा का मुखदर्शन (तर्ज-कुमारी रोवे, आनन्द करे, मुने कोई मुकावे, राग-केदारो या गौड़ी)
देखण दे रे, सखी मुने देखरण दे चन्द्रप्रभु मुखचन्द, सखी। उपशमरसनो कंद, सखी, गतकलिमल-दुखद्वन्द, सखी० ॥१॥
अर्थ आत्मा की शुद्ध (ज्ञान ) चेतना अशुद्ध चेतना-सखी से कह रही हैहे सखी। मुझे इस अवसर्पिणीकाल के आठवें तीर्थकर श्रीचन्द्रप्रभु [वीतरागपरमात्मा के मुखरूपीचन्द्र के दर्शन कर लेने दे, क्योकि परमात्मा का मुखचन्द्र शान्त (उपशम) रस का मूल है, और वह क्लेश, रागद्वषरूपी मैल (विकार) व समस्त दुःख; से दूर है।
भाष्य
परमात्मा के मुखचन्द्र का दर्शन क्यो ? पिछली स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्म-वन्दना के सम्बन्ध में सागोपागरूप में बताया था, परन्तु वन्दना मे जो अभिमुखता होनी चाहिये, वह तो केवल अमुक गुणनिप्पन्न नाम ले लेने या तदनुसार जप कर लेने से नही हो सकती, वह तो प्रभु के शान्त- अमृतरसपूर्ण, समस्त कलको व मलिनताओ से रहित पूर्णचन्द की तरह मुखचन्द्र के दिखाई देने पर ही भलीभाँति हो सकती है, इसलिए श्री आनन्दघनजी श्रीचन्द्रप्रभु तीर्थकर की स्तुति के माध्यम से परमात्मा के शान्त, निर्मल मुखचन्द्र का दर्शन करने को उत्कण्ठित-परमउत्सुक हो कर आत्मा की एकान्तहितपी शुद्धचेतना द्वारा अपनी अज्ञानचेतनारूपी सखी से कहलाते है कि 'तू प्रभु के मुखचन्द्र को देखने दे।' - यहाँ श्रीआनन्दघनजी ने सखी को सम्बोधन करते हुए प्रभुमुख के दर्शन की जो वात कही, उस पर से प्रश्न होता है कि क्या अब तक आत्मा की ज्ञान