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अध्यात्म-दर्शन
हुए, मुखचन्द्र हैं, और वे तो सदा मलयुक्त रहते हैं। 'असुई असुईमम' म शाम्नवचनानुसार शरीर का प्रत्येक अवयव अत्रिमय है, मनिन है। मुक्त परमात्मा का ज्ञानरपी मुवचन्द्र तो सदा गविन और शट्ट रहता है. उसमे विकार या अगद्धता को कोई न्यान ही नहीं है। मष्टिगे यहाँ मिद्ध परमात्मा के ज्ञानम्प मुवचन्द्र का दर्शन ही अभीष्ट है।
व्यवहारपिट मे भी गोचा जाय तो वर्तमान में श्रीचन्द्रप्रभु तीर्थकर प्रत्यक्ष नहीं है, वे तो मुक्ति में विराजमान है। बत परीक्षा में उनको मुखचन्द्र के दर्शन कैने किये जा सकते है ? यह एक गवाल है। इसलिए यहाँ भी नयोगीकेवली गरीरधारी वीतराग परमात्मा के मुवचन्द्र के दर्शन से ज्ञानम्प मुठचन्द्र अथवा शद्ध आत्मभावत्पी मुखचन्द्र के दर्शन ही अभीष्ट है, ऐसा प्रतीत होता है । क्योकि वही मुखचन्द्र उपशमरग का कद एव गमग्न क्लेश, मानिन्य एव दुख-दृन्दो से रहित है।
माथ ही ऐगे परमात्म-मुखचन्द्र के दर्शन करने का अधिकारी भी ज्ञानचेतनायुक्त मम्यग्दृष्टि आत्मा होना चाहिए, तभी वह परमात्मा के मुत्रन्द्र पर छिटकती हुई उपशमरस की चांदनी देख सकेगा नया गगडे पादि कलिमल और दुख-द्वन्द्व से रहित निर्मलता का निरीक्षण कर सकेगा। ___ इस प्रकार में दर्शन करने वाले को ही मवर-निर्जरारूप महान् धर्म का लाभ मिल सकता है। अन्यथा, शुद्ध आत्मभावरूपी मुखचन्द्र या शुद्धज्ञानमय मुखचन्द्र की उपेक्षा करने केवल मुखचन्द्र के सम्यग्भावनाहीन दर्जन में डरा महान् धर्म का लाभ नहीं हो सकता।
इसी दृष्टिकोण मे अगली कुछ गाथाओं में किस-किस गति और जीवयोनि मे कहाँ-कहाँ परमात्मा के उक्त मुखचन्द्र के दर्शन नहीं हो सके, इसका वर्णन श्रीआनन्दघनजी मार्मिक शब्दो मे करते हैंसुहम निगोदे न देखियो, सखि! बादर अति हि विशेष ॥ स० ॥ पुढवी आऊ न लेखियो सखि तेऊ वाऊ न लेश ॥ सखी ० ॥२॥ वनस्पति, अतिघरग दिहा, स०, दीठो नहिं दीदार ॥ स० ॥ बि-ति- चरिदिय-जललीहा, स० ; गतसन्निपरण धार ॥स०॥३॥