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अध्यात्म-दर्णन
विचार भी गा कि दुखो बारनाओ
माया। हालाकि चाहता तो मैं वैसा विचार कर भरता या। इम रिक्त जातो नरको में मैं अनेक बार जन्मा, बहन नये समय नक वहाँ रहा । वहाँ वनिय शरीर, पांवो इन्द्रियों और मन भी मिले, विभगनान भी जन्म में ही मिला। लेकिन नरको मे अनेक दुगो और यातनाओ को सट्ने-गहने में इतना अधीर नीर बेचैन हो गया कि दुखी और मयों से आयान्त मेरे दिमाग मे कभी यह विचार भी नरी आना था कि मैं परमात्मा के मुगचन्द्र का दर्शन करें।
इन सब घाटियो यो पार करने में विशेष पुण्य के कारण मजी-पन्वेन्द्रिय मनुप्य बना। पांचो इन्द्रियां, स्वत विद्यापील मन नया विविध माधन भी मिले, यहां प्रभुमुखदर्शन करने के योग्य शरीर, मन, इन्द्रिय, बुद्धि, साधन आदि भी मिले, लेकिन अनार्यक्षेत्र, अनार्यकुल, बनार्वजाति, मनार्यकर्म एवं अनार्यवातावरण मिला। अनार्य मनुप्यों के सहवास में रात-दिन रहने वाले व्यक्ति के मन में कार्यकर्म की प्रेरणा कैसे हो सकती ची? और आर्यकर्म की प्रेरणा अन्तर्मन मे जागे विना वीतरागमुखदर्शन की लगन कैसे पदा हो सकती थी? यही कारण है कि इतना उत्तम मनुष्यजन्म पा कर भी मैन व्यर्थ खो दिया। यहां भी मूक्ष्मन्नानचेतना-शून्य होने में में प्रभुमुखदर्शन से वचिन ही रहा। यहां मुझे कमी छहो पर्याप्नियां पूरी नहीं मिली, कभी छहो पर्याप्तियां पूरी मिली तो भी शुद्धज्ञानचेनना न होने से चतुर प्रभु मेरे हाथ मे बाए ही नहीं। मैं टुकुर-टुकुर देखता ही रह गया, मगर प्रभुमुखदर्शन न हो सके।
इस प्रकार श्रीआनदघनजी अपनी लवी आत्मयात्रा का इतिहास कहते-कहते उपसहार करते हैं- मैं एकेन्द्रिय मे ले कर पञ्वेन्द्रिय नक के अनेक स्यानो मे भटका और दीर्घकाल तक रहा। चार गतियो मे से कोई भी ऐसी गति, ८४ लाख योनियो में से कोई भी ऐसी योनि, तथा पांच जातियों में से कोई भी ऐसी जाति; सक्षेप मे मसारी जीव के सभी प्रकारो मे से कोई भी ऐसा प्रकार नही छोडा, जहाँ मैने जन्म न लिया हो, ' मगर किसी भी जगह मैने
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१. न सा जाई, न सा जोणी, न त ठाणं, न त कुलं । , न जाया, न मुआ जत्य, सत्वे जीवा अगतसो ॥-उत्तराध्ययन-सूत्र