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अध्यात्मान
अनादिकान में गगार भ्रमण हा जीन के दाग अगर यह प्रयोग गफल हो जाव तो परमात्मा और जगमी मात्मा रेबीन में पटा हना अन्तर मिट सकता है। अन्तिम गाया गे गी आणा तो ले कर उत्गाहपूर्वक श्रीआनन्दघनजी आनन्द-रग विभोर हो कर झूम उठने है--
तुझ मुझ अतंर-अतंर भाजशे रे, वाजशे मंगलतूर । जीवसरोवर अतिशय वाघशे रे, 'आनन्दधन' रसपूर ।।
पदमप्रभजिन ० ॥६॥
अर्थ मेरे और आपके अन्दर का (आन्तरिक) जो अन्तर है, वह अन्त मे अवश्य मिटेगा अथवा मेरा अन्तर (गुणकरण द्वारा) उपत अन्तर को तोड़ कर रहेगा । तब मगलवाद्य बज उठेगे और मेरा जीवसरोवर प्रफुल्लित हो कर अत्यन्त वृद्धिगत हो जायगा एव वह उस आनन्द-समूह के रस से लवालव भर जायगा अथवा यह जीव परम-आनन्दस्पी घन (बादल) बन कर रम की वर्षा करता रहेगा।
भाष्य
__ अन्तर मग होने का परिणाम श्रीआनन्दवनजी पूर्वोक्त गाथाओ में प्रतिपादित वातो द्वारा इस बात को भलीभांति हृदयगम कर चुके है कि परमात्मा और मेरी आत्मा ने बीन में जो अन्तर है, वह कमॉ के कारण है और कर्मवन्धन मे छुटकारा पाना तथा आश्रवत्याग व गवरग्रहण करना भी मेरी आत्मा के ही हाथ मे है । गेरी आत्मा जब यह कतई नहीं चाहेगी कि वह कर्मवन्धन मे पडे, तव वह प्रतिक्षण सावधान और जाग्रत हो कर कर्मवन्धन को कारणो को मिटायेगी, नये कर्मों को आने से रोकेगी, उदय मे आए हुए पुराने कर्मों का फल समभाव से भोग कर अथवा उदयाभिमुख न हुए हो, उन्हे उदीरणा करके उनको क्षीण करने का पुरुषार्थ करेगी। इस प्रकार गुणकरण द्वारा यानी प्रतिक्षण आत्मा के ज्ञानादि निजगुणो मे स्थिर रह कर युंजनकरण के कारण से परमात्मा और मेरी आत्मा के वीच वटते जाने वाले अन्तर को मैं एकदम काट दूंगा। इस युंजनकरण के कारण मैं मंमारी कहलाता था, लेकिन जने आप
यु जनकरण का त्याग करके गुणकरण अपना कर ससारी से सिद्ध-बुद्ध-शुद्ध-मुक्त , वने, वैसे मैं भी यु जनकरण का त्याग करके गुणकरण को अपनाऊंगा, जिससे