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अध्यात्म-दर्शन
होते हैं) से रहित है । उन्हें मन-वचन-लाया में योग कोई बाधा (काप्ट) मदद वीतराग-अवस्था मे नहीं पहुंचाते। विदेह (देहमुक्त) अवस्था मे तो उनमे उक्त योग होते ही नहीं। मननय यह है कि गमारी जीवो को अपने और अपनी लिए वात-वात मे राग (मोह), ममता हो जाती है। धन, बल, जाति, कुल, प्रभुत्व, (सत्ता, पद आदि), रूप, किसी वस्तु का लाग आदि पा कर उन्हें अगिमान (गर्व) हो जाता है, जरा-जरा-गी बातमे वे मकल्पविकल्प में बने-उतराते रहते है, ईप्ट वस्तु के वियोग और जनिष्ट के मयोग में अरनि (अरुचिघृणा) हो जाती है तथा अनिष्ट वस्तु के वियोग और इंप्ट के गयोग मे रति (रुचि हर्प) पैदा हो जाती है, बात-बात मे मार्त-रौद्रध्यान के विकरपणाल गू थने लग जाते हैं। थोडी-थोडी-सी बात को ले कर या जरा-सी अप्रिय घटना की सुराग मिलते ही भय पैदा हो जाता है , प्रियजन या प्रियवस्तु के वियोग और अप्रियजन या अप्रियवस्तु के सयोग मे शोक पैदा हो जाता है, वे हाहा- ' कार या हायतोबा मचा उठते हैं, अयवा रोने-पीटना या विलाप करने लगते हैं। दुनियादार लोगो को चिन्ता के कारण भले ही नींद न आती हो, वैसे ये द्रव्यनिद्रा मे भी वेसुध पड़े रहते है, भावनिद्रा मे तो प्राय मग्न रहते ही है, क्योकि वे आत्मस्वरूप में जागृत नही रहते हैं। साथ ही वे मात्मस्वरुप में रमण करने मे आलसी (तन्द्रापरायण) होते हैं, उन्हे योगो की चपलता प्रतिक्षण खिन्न-क्षुब्ध बना देती है।' उन्हे सासारिका विषयवासनालो में प्रवृत्त करती है । __ इसके विपरीत पूर्वोक कथानानुसार परमात्मा इन सब दोपो से विलकुल रहित है । वे दुनियादारी के इन दोपो से विलकुल अछूते है। क्योकि वे इन तमाम दोपो को नष्ट करके ही वीतराग बने है। राग, द्वेप, मद, करपना, रति, मरति, भय, शोक और दुर्दशा, ये सव मानसिक योग है और निद्रा तया तन्द्रा ये दोनो शारीरिक योग है, ये सब योग प्रभु मे न होने से उनम अवाधित-योगी नाम सार्थक हैं ।
इन सब दोपो से रहित होने से वे स्वय पुरुपो मे सर्वथा उत्कृष्ट (Superman) है , आत्मिकदृष्टि से महापराक्रमी होने से वे परम पुरुप कहलाने योग्य है । उनकी आत्मा परमात्मत्वपद को प्राप्त होने से वे परम आत्मा=परमात्मा है । तथा सुमतिनाथ तीर्थकर की स्तुति मे परमात्मा के बताये हुए लक्षण के अनुसार वे वहिरात्मा और अन्तरात्मा से आगे बढ़े हुए