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आत्मा और परमात्मा के बीच अतर-भग
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स्वभाव जव प्रगट होता है तो दूसरा स्वभाव छिप जाना है। इस प्रकार
आविर्भाव-तिरोभाव, के रूप मे ये दोनो पर्याये जीव मे पाई जाती है । अभव्य - जीव मे सिर्फ एक ही मसारयोग्यता-स्वभाव होता है । ससारी भव्यजीवो मे दोनो स्वभाव मुन्य-गीणरुप मे होने है।
तीसरा करण जानकरण है, जिसका अर्थ है-वस्तु को वस्तुस्वरूप से जानने-पहिचानने की क्रिया। वस्तुत इमका समावेश गुणकरण मे ही हो जाता है।
। गुण-करण मे प्रवृत्त होना ही अंतर-भग का श्रेष्ठ उपाय '' पूर्वोक्त दोनो करणो को भलीभाँति जान कर गुणकरणं मे प्रवृत्त होना ही आत्मा और परमात्मा के बीच में पड़े हुए अन्तर (दूरी) को भंग करने का सुअग-श्रेष्ठ उपाय है, रामवाण इलाज है । आत्मा और परमात्मा के वीच की दूरी मिटाने का उपाय आत्मा के सिवाय अन्य किसी का अनुग्रह नही है। क्योकि कर्मवन्ध के सयोग और वियोग दोनो आत्मा के स्वभाव के अनुसार होते है । यदि थोडी देर के लिए ईश्वरकृपा आदि को कारण मान भी लिया जाय, तव भी दोनो स्वगुण-स्वभाव के अनुसार ही होते है। मतलब यह है कि जव आत्मा सवर मे प्रवर्तमान होती है, यानी व्यवहारिक दृष्टि से वह अष्ट-प्रवचनमाता (समितिगुप्ति) का पालन करती हो, वारह अनुप्रेक्षा, क्षमा आदि दशविध श्रमणधर्म मे उद्युक्त हो, परिपह पर विजय प्राप्त करने मे प्रयत्नशील हो, पचमहाव्रत या पचाणुव्रत, नियम आदि मे पुरुपार्थ कर रहा हो, तव वह आश्रवरहित हो जाता है । इससे नवीन कर्मो को आते हुए रोक देता है। यह गुणकरण की प्रक्रिया है, जो आत्मा के स्वपुरुषार्थ से होती है, इस प्रक्रिया से ईश्वरादि का अनुग्रह स्वत प्राप्त हो जाता है। यु जनकरण को रोकने से ही ऐमा गुणकरण होता है, जो पूर्वोक्त अन्तर को मिटाने का सरलतम उपाय है।
योगविन्दु, योगशास्त्र, योगद्वात्रिंशिका अथवा योगदृप्टि-समुच्चय आदि किसी भी ग्रंथ को उठा कर देखे तो उसमे आत्मा और परमात्मा के वीच की दूरी मिटाने का सर्वोत्तम उपाय यु जनकरण को रोक कर गुणकरण को अपनाने का बताया गया है ।