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आत्मा और परमात्मा के बीच अंतर-भंग
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और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) बताने का प्रयोजन यह है कि अगर तुम्हे वीतराग परमात्मा और तुम्हारे बीच का अन्तर मिटाना हो तो कर्मवन्ध के कारणभूत आश्रव को हेय समझ कर छोडना चाहिए और सवर को उपादेय समझ कर स्वीकारना चाहिए । तभी तुम्हारा मानवदेह सफल होगा और तुम्हारा परमात्म-मिलन का शुभमनोरथ पूर्ण होगा। यही मुक्ति प्राप्त करने का सच्चा उपाय है, यही सिद्धत्व का मार्ग है और यही परमात्ममिलन का सत्पथ है। और कर्मबन्धन के कारणो का स्वीकार और इन्कार तुम्हारे ही हाथ मे है । यदि हाथ में आई हुई इस वाजी को हार गए तो फिर चिरकाल तक समार मे परिभ्रमण करना पडेगा । _ 'कर्मों के वन्ध और मोक्ष का स्वरूप जानते हुए भी आत्मा बार-बार कर्मों से जुड जाता है, उसमे न जुडने का क्या कोई उपाय है ?' इस जिज्ञासा के समाधान-हेतु श्रीआनन्दघनजी अगली, गाथा मे कहते हैयु जनकरणे हो अन्तर तुझ पड्यो रे, गुणकरणे करी भंग। प्रन्थ उक्ते करी पंडितजन कह्यो रे, अन्तरभग सुभंग ॥ पद्मभ०।५।
अर्थ हे भव्य । युजनकरण (कर्म के साथ जुड़ने की क्रिया) के कारण तेरा परमात्मा से अन्तर (फासला) पडा है,जो गुणकरण (आत्मगुणो मे रमण करने की क्रिया) के द्वारा भग हो (छूट) सकता है । आगमादि धर्मग्रन्थो के कथन से आगम के अनुभवी पण्डितो ने परमात्मा से आत्मा के बीच की दूरी मिटाने का यही सर्वश्रेष्ठ उपाय बताया है ।
भाष्य
तीन करण और उनका स्वरूप पूर्णगाथा मे कर्मबन्ध और कर्ममुक्ति के कारण क्रमश आश्रव और सवर को हेय और उपादेय बताया, किन्तु केवल कारणो के बताने मात्र से हेय त्यागा नही जा सकता और उपादेय को ग्रहण नही किया जा सकता। मतलव यह
१. 'तत्प्रदोष-निह्नव-मात्सर्यान्तरायाशादनोपघाता . ज्ञानदर्शनावरणयो'
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तत्त्वार्थसूत्र