________________
आत्मा और परमात्मा के वीच अन्तर-भग
१२६
मे सहसा प्रश्न उठना है कि वे कर्म कितनी किस्म के है ? वे कैसे-कैसे वधते हैं ? कितने-कितने काल तक वे ज्यादा से ज्यादा आत्मा के साथ ठहर सकते है ? उन कर्मो मे तीव्रता-मन्दता आदि कैसे होती है ? जिससे उन्हे भोगते समय अधिक या कम दुख महसूस हो ? ये और ऐसे अन्तर्मानस उठे हुए प्रश्नो का वे अगली गाथा द्वारा सक्षेप मे समाधान करते है -
पयई-ठिई अणु भाग-प्रदेशथी रे, मूल-उत्तर बहुभेद । धाती-अघाती हो, बन्धोदय-उदीरणा रे, सत्ता कर्मविच्छेद ।।
पद्मप्रभजन • ॥२॥
अर्थ प्रकृति (निश्चित स्वरूप के फल देने के कर्मों का स्वभावरूप बन्ध), स्थिति (कर्मों का आत्मा के साथ कर्मत्वरूप से रहने का कालसीमारूप बंध) अनुभाग (कर्मों की फल देने की न्यूनाधिक, शक्ति) (रसरूप) बन्ध और प्रदेश (कार्माणवर्गणानुसार कर्मपुदलो के न्यूनाधिक जत्यो का नियमनरूप बन्ध) इन चारो प्रकार के बन्धो से, फिर कर्मों की मूल (मुख्य) तथा उत्तर (अवान्तर) प्रकृतियाँ अनेक भेदो वाली हैं, फिर कर्म भी दो प्रकार के है-- घातीकर्म, और अघाती कर्म तथा कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता इन चारो को समझ कर इन सभी का विच्छेद (विनाश) कर देना ही परमात्मा के और आत्मा के बीच का अन्तर मिटाने का उपाय है।
भाष्य
चार प्रकार से कर्मों के बन्ध मात्मा के साथ कर्मों के लगने का सारा तत्त्वज्ञान जब तक न समझ लिया जाय, तव तक साधक न तो कर्म-सयोगो को आत्मा से अलग करने की बात सोच सकता है और न ही वह परमात्मा और अपने बीच के अन्तर को तोडने का सही पुरषार्थ कर सकता है। इस दृष्टि से सर्वप्रथम कम के लगने के ५ मुख्य कारण बताए है-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग । इनके अवान्तर भेद ५७ हैं, इन सबको बन्धहेतु कहते हैं। आत्मा के साथ कर्मो का सयोग इन ५७ वन्धहेतुओ मे से एक या अनेक हेतुओ की