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अध्यात्मदर्गन जायगा । इमलिए श्रीआनन्दवनजी ने इन दोनो के सम्बन्ध को कना और, उपल यानी सोना और मिट्टी के गम्बन्ध की उपगा दी है । गोगा गिट्टी में मिला है, परन्तु वह कर से उनके गार मिना हुआ? गे टीका मेरा नह। जा सकता । परन्तु यह निश्चित सि मिट्टी मिता या गोना मिट्टी ने एक दिन अनग किया जा सकता है, भले ही वह जनादिकाल मे हो-~उसका काल निश्चित न हो। मिट्टी में गोना अलग होने पर ही अपने पूर्ण शुद्ध ल्प मे आता है इसलिए मिट्टी और गांग का गम्बन्ध मोगलम्बन्ध है। किन्तु मिट्टी का सोने के नाय गयोग किसने किया ? पाव किया ? मिट्टी पहले मिनी थी या मोना पहले मिला था। इन प्रग्ना वा जने कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता, नंगेती जीवात्मा का गार्गों के नाय सयोग के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए। व्यवहारनय को दृष्टि में कमों के माथ आत्मा का गम्बन्ध म्बय आत्मा के द्वारा कृत होता है, दूसरा कोई जीव या ईश्वर आत्मा के साथ कर्मों का नयोग मिलाता है, यह बात असंगन प्रतीत होती है, क्योकि यदि ईश्वर ही कामंका गयोग कराता है, तोवर ही कर्म से वियोग (मुक्ति) करा सकता है। यदि ईश्वर के हाथ मे ही जीवो के कर्मों की मुक्ति हो तो किमी भी जीव को मार्मक्षय करने और कर्मों से मुक्त होने के लिए कोई पुरपार्य करने की जरूरत नहीं रहेगी , न व्रत या महानतादि धारण करने की आवश्यकता रहेगी। परन्तु यह वात मानने पर ईग्वर प्रपची, रागी, द्वेपी, अन्यायी आदि ठहरेगा, जने कि उमका स्वरूप कतई नही है। अत पात्मा का कर्मा गाय गयोग-सम्बन्ध स्वयकृत है । परन्तु यह मयोग कवते हे ? एक आत्मा की दृष्टि से प्रवाहरूप से आत्मा और कर्मों का मयोग सम्बन्ध बनादि है । आत्मा गहले कर्मो मे मिली थी या कर्म आन्मा से मिले थे? यह अतिप्रश्न है, जिनका समाधान बीजवृक्षन्याय से दिया जाता है कि वीज पहले या या वृक्ष पहले या ? मुर्गी पहले थी या बंडा पहले था ? दोनो की प्राथमिकता मापेक्ष है। इनलिए इस पर ज्यादा गौर न करके यही मोचा जाय कि आत्मा और कर्मों का सम्बन्ध प्रवाहरूप से भले ही अनादिकालीन हो, मगर एक न एक दिन उसका अन्त आ सकता है, जिन कारणो से उसका मंयोग हुआ है, उन कारणो को मिटा देने पर आत्मा स्वर्णवत् शुद्ध कर्ममलरहित बन सकती है । जैसे कर्मवन्ध को पुरपार्थ व्यवहारदृष्टि से भात्मकृत है, वैसे ही कर्गमुक्ति का पुरुषार्थ भी आत्मकत है । गहां कर्ग के