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- अध्यात्म-वर्णन
उपस्थिति होने पर हीना है। गवप्रगगनी' बन्ध के हेतुओं पर विजय प्राप्त करना चाहिए। जब विगी कर्म का बन्धन होने लगता है, तब प्रगति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेण, ये नार बाते मुकरं र हो जाती है। आ.।, शारव-प्रसिद्ध मोदक के दृष्टान्न पर गे इमे समझ लें---
प्रकृतिवन्ध---जैसे कोई मोदक वातरोगहर्ता होता है, कोई पिननाशक, तो कोई कफविनामा होता है, और वे उन-उन द्रव्यो गे बनाये जाते है, उनी प्रकार कर्म भी विभिन्न स्वभाव के होते हैं, वे विभिन्न कारणों से अलगजलग प्रकृति के होते हैं, कई कर्म आत्मा की शानशक्ति नो रोकते है, कई दर्शन की शक्ति को, कई गुख या दुख पैदा करने वाले हैं, कई मोहमाया में फंसाने वाले होते हैं, कई शरीर की आयु प्रदशित करने वाले, गाई शरीर की आकृति बनाने वाले, कई जाति में न्यूनाधिकता करने वाले हैं, कई लाभ, शक्ति आदि को रोकने वाले होते है । ग प्रकार पत्येक वर्ग को प्रकृति (स्वभाव) नियत करने व बताने वाला वन्ध प्रतिवन्ध होता है।
स्थितिवन्ध---जैसे विभिन्न मादको के अच्छे रहने, बिगड़ने लगने या बिगड जाने की अवधि होती है, वैसे ही विभिन्न कर्मों की आत्मा के साथ स्थिति (टिके रहने की कालमर्यादा) को स्थितिवन्ध कहते है । कर्मो की स्थिति भी शुभ-अशुभ जादि अनेक अध्यवगायो के अनुसार वैधती है। स्थितिवन्ध गे यह मुकर्रर होता है कि अमुक कर्म कव फल देगा, फल देने लगने के बाद कितने समय तक वह फल देगा, अथवा कितने समय तक अमुक कर्म कित्ती प्रकार का फल दिये विना आत्मा के माथ जुडा रहता है ?
रस (अनुभाग) वन्ध - जिस प्रकार लड्डुओ के रसो मे भी कोई मीठा, कोई फीका, कोई तीखा, कोई कसैला या स्निग्ध होता है तथा कोई एक गुना मीठा, कोई दो गुना, कोई तीन गुना मीठा, चरपरा आदि होता है। इसी प्रकार कर्मों के रसो मे भी विभिन्नता होती है। रसवन्ध भी मन्द, मन्दतर, मन्दतम, तीव्र, तीनतर, तीव्रतम आदि अनेकविध अध्यवसायपूर्वक की गई क्रिया के अनुसार नियत होता है। किस कर्म की मन्दता या गाढता कितनी है, यह रस (अनुभाग) बन्ध मे ही मुकर्रर होता है ।
प्रदेशवन्ध-जिस प्रकार लड्डू बांधते समय कोई आधा पाय का, कोई पावभर का, कोई आधा सेर और कोई सेरभर का भी वांधा जाता है, कई