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अध्यात्म-दर्शन
अर्थ
हेतुओ (तको) के विवादो (पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष के सगड़ी में) चित्त को दृढ़ता से लगा कर उनके द्वारा परमात्मा का दर्शन करने जाय तो नययाद (विभिन्न दृष्टिबिन्दुओ) को समझना अत्यन्त पेचीदा है। शास्त्रप्रमाण मी सहायता लेने जाय तो शास्त्र की जटिल एवं पूर्वापर-असंगत बातो से जहाँ बुद्धि चकरा जाती है; वहाँ कोई गुरुगम (निप्पस गुरु की धारणा) न होने से परमात्म-दर्शन मे यह सब व्यर्य का विवाद है, बडा झगडा है, प्रपंच है या अत्यन्त खेदजनक है ।
माध्य
नयवाद मे परमात्म-दर्शन दुर्लभ श्रीआनन्दधनजी परमात्मदर्शन की दुनं भता का प्रतिपादन अब अन्य पहलुओं मे करते है। बहुत से लोग परमात्मदर्शनप्राप्ति को बहुत ही मानान समझते है। वे सोचते है कि इतने बडे-बटे विद्वान् दुनिया में हैं, वे किसी भी वन्नु को समझने-समझाने के लिए मूक्ष्म में मूक्ष्म तक प्रस्तुत करते है, विविध दृष्टिकोणो को समझते-समझाते है । परन्तु नकों या हेतुओ से परमात्मा का दर्शन इतना आमान नहीं है । क्योकि नयवाद अत्यन्न दुर्गम्य है। विभिन्न नयो का वर्णन कर देना चा विभिन्न दृष्टिकोणो को प्रस्तुत कर देना गा बात है, और अपना मताग्रह पूर्वागह या पक्षाग्रह अथवा एकासन्य की प्राप्ति को गर्वाण सत्य समझने का अकार छोड कर विभिन्न नयो या दृष्टिकोणो मे मापेक्षतानाम जम्य-अविगेधिता जथवा नगति स्थापित करना और बात है। यह बात बुद्धि की अपेक्षा हृदय में ज्यादा गम्बन्ध रखती है। जब तक हृदय परमात्मा (शुद्ध आत्मा) के मत्यदर्शन के लिए झुके नहीं, बुद्धि में मे कदाग्रह, मनाग्रह या म्वत्वमद का नशा न उतरे, तब तक हृदय नन और मरन नहीं हो सकना, और हृदय के नम्र व मरल हुए विना नत्यदर्शन होने अतीव दुभ है। जहां वौद्विक पहलवानो द्वागनों के दावीच लगा कर दूसरे को हगने और स्वय के जीतने जथवा अपने बुद्धिबल म 'ब्रान्त न प्रस्तुत करके या तोड-मरोड कर अर्थ करते अपनी मानी हुई वान को मच्ची सिद्ध करने का प्रयास होता है , वहाँ मृत्यनिष्ठा नहीं होती। प्रभुदर्गन की प्राप्ति के लिए आन्तगि निष्ठा के अगार में कोई भी हेतु या नयवाद महाया नहीं हो सकता।