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परमात्म-दर्शन की पिपासा
मिटा दे।' परन्तु उय गम्बन्ध में भी वे अपनी निराशा प्रगट करते है कि अगर मै जनता के सामने दर्शन-दर्शन चिल्लाता फिरूं तो मेरी यह पुकार अरण्यरोदन के समान होगी । मुझे ऐमी सम्भावना कम है कि कोई मेरी यह पुकार सुने । क्योकि ससार मे अधिकतर लोग शुष्क अध्यात्मवाद की रटन के द्वारा अपना आत्मसतोप मान लेते है, अथवा सूखा अध्यात्मवाद बधार कर जनता में अध्यात्मयोगी या आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप मे प्रसिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, वे अपने जीवन मे प्राय वास्तविक आत्मदर्शन या परमात्मदर्शन न तो स्वयं ही कर पाते है, और न दूसरो को करा सकते है।
अथवा मेरा दर्शन-दर्शन की रट लगाते घूमना भी उसी तरह होगा, जैसे जंगल मे रोज (नील गाय) का होता है। बेचारा वह पशु गर्मी में प्यास लगने पर पानी की खोज मे इधर-उधर दौड लगाता फिरता है, परन्तु पास जाने पर दूर से दिखाई देने वाले पानी के बदले मूखी रेत मिलती है। जैसे उसमे उसकी प्यास नही मिटती , वैसे ही परमात्मदर्शन की प्यास बुझाने के लिए दर्शनशब्द की रट लगाता जगह-जगह भटकता फिरू , तो उम आशिक सत्य को ही सवांशसत्य मान लेने, चाहे जिम 'दर्शन' को परमात्मा का दर्शन मान लेने से मेरी भी दर्शन की प्यास नहीं मिट सकती । जिम तरह किसी व्यक्ति को अमृत पीने की इच्छा हो, वह अगर अमृत के नाम पर विप पी ले तो उमकी अमृतपिपासा मिट नहीं सकती, उसी तरह जिमे परमात्मा (वीतराग) के सम्यग्दर्शन की पिपासा हो, उगे अगर सम्यग्दर्शन के नाम से प्रचलित कोई कुदर्शन या अव्यवस्थित एकान्त-दर्शन प्राप्त करा दे तो उसकी सम्यग्दर्शनपिपासा करो मिट सकती है ? बल्कि जैसे पानी के बदले मिट्टी का तेल पी लेने पर प्यास मिटने के बदले अधिक भडक उठनी है, वैसे ही परमात्मा वीतराग के सम्यग्दर्शनरूपी अमृत के बदले कोई कुदर्शनस्पी विप पिला दे तो उससे दर्शन की प्याग मिटने के बदले और अधिक भडकेगी , यानी ऐसे व्यक्ति को प्रत्येक राम्यग्दर्शन को देख कर भी उगमे मिथ्यादर्शन की बू आने लगेगी, वह सच्चे दर्शन को भी झूठा रामझने लगेगा। जैसे दूध का जला छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीता है, वैसे ही सम्यग्दर्शनपिपासु भडक जाने पर सम्यग्दर्शन को अपनाने मे भी सदेह या वहम करने लगेगा।
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