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५ : सुमतिनाथ-जिन स्तुति परमात्मा के चरणों में आत्मसमर्पण
(तर्ज-राग वसत, तथा फेदारो) सुमतिचरणकज आतम-अर्पणा, दर्पण जिम अविकार, सुजानी । मतितर्पण बहुसम्मत जागीए, परिसर्पण सुविचार, सुज्ञानी ।।
मुमति० १॥
अर्थ
हे सुज्ञानी । इस अवसपिणी काल के पंचम तीर्थकर श्री सुमतिनाथ परमात्मा के दर्पण की तरह निर्मल निविकार चरणकमल (अथवा कमलवत् निलेप चारित्र) मे अपनी आत्मा को समर्पित (अर्पण) करना वास्तव में अपनी बुद्धि को तृप्त (सतुप्ट) करना है। और इस बात को बहुजन-सम्मत (मान्य) समतो । ऐसा करने से आत्मा मे (या जगत् मे) सद्विचारो का प्रचार-प्रसार होगा।
भाष्य
आत्म-समर्पण क्यों ? पूर्वस्तुति मे परमात्मा के दर्शन की दुर्लभता का वर्णन करते हुए श्रीआनन्दघनजी ने अन्त मे परमात्मा की कृपा में उसकी मुलभता वताई , परन्तु परमात्मा की कृपा नभी प्राप्त हो सकती है, जब नाधक अपनी आत्मा को परमात्मा के चरणो मे 'अप्पाण वोसिरामि' (मैं अपने आपका व्युत्सर्गन्यौछावर वलिदान करता है) कर दे , अपने आपको सर्वतोभावेन समर्पण कर दे । इगलिए श्रीमुमतिनाथ तीर्थकर की स्तुति के माध्यम से इस स्तुति में आध्यात्मिक साधन के लिए परमात्मा के चरणों में अपनी आत्मा को समर्पित करने की बात पर जोर दिया है।
कई वार माधक अपनी स्वच्छन्द वृत्ति-प्रवृत्तियो, स्वार्थों, स्पृहाओ या नामना-वागनाओ को छोडे बिना ही पात्गविकाग पो पथ पर आगे बढ़ना