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अध्यात्म-दर्शन
लिंग, सय्या, वर्ग आदि के विकल्पो में मैं मुक्त है। अन्य न मेग कोई गनु है, न मित्र । गब प्रकार की गरीन्चेष्टाए स्वप्न या इन्द्रजान्नवत् है। मैं अभी तक रासार में सनी कारण दुन्न पाता रहा गि: मैने आत्मा-अनात्मा का स्वभाव-परभाव का भेद नहीं समझा । जनानी पुष्प विषयों को अपने मान पर उनी प्रीति करता है, मेरे लिए यह विषय नीति आपनि । का म्धान है । काया पर अनानी जादमी ही आनन होने है. चे अपने शरीर का सुन्दर रूप, वन, आयु आदि चाहने है, पर मुझे अपने को चिदानद में लगाना है, काया की आमनि छोडनी है। आत्मविज्ञान मे रहित पुग्ण अपना दुस नहीं मिटा समाना । मै अपने म्बम्प में रमण करने मे ही भानन्द मानूंगा, अज्ञानी प्राणी अपनी अन्तर्योति रद्ध हो जाने के कारण अपनी आत्मा में भिन्न वस्तु पर मुग्ध- मतुप्ट हो जाते हैं, पर मुझे तो अपनी आत्मा में ही मतुप्ट व मुग्ध होना चाहिए।
इस प्रकार अन्तगत्मा यह मानता है कि बम्न के लाल, जीर्ण, मोटे, दृष्ट, लम्बे या नष्ट हो जाने में गरीर लाल, जीणं, हट, मोटा, लम्बा या नष्ट नहीं होता, वैमे ही शरीर के लाल, जीर्ण, मोटे, दृट लम्बे या नष्ट होने में आत्मा लाल मोटी, लवी, दृढ जीर्ण या नष्ट नहीं होनी । इस प्रकार से भेदविज्ञान के सतत अभ्यास से अन्तरात्मा अपने भवभ्रमण को नाश कर देता है। जो आत्मा को नहीं जानता, वह पर्वत, गांव, उपाश्रय आश्रम भादि को अपने रहने का म्यान मानता है, परन्तु जो अन्तरात्मा (ज्ञानी) है, वह सभी जवस्थाओ मे अपनी आत्मा में ही अपना निवाम-स्थान मानता है। अपनी आत्मा ही अपना आत्मीय, वन्धु, शत्रु , या मित्र है, गरीगदि दूसरे कोई अपने नहीं है, इस दृष्टि मे आत्मण अपना ममार भी स्वयं बनाती है और मोक्ष भी स्त्रय ही अपने लिए रचती है । अन्तरात्मा शरीर को आत्मा से अलग मानता है, इसलिए जीर्ण वस्त्र की तरह वह शरीर का भी विना हिचकिचाहट के त्याग कर देता है । अन्ततोगत्वा वह ज्ञानी होता है, वह आत्मा को अन्तरग रूप से
और शरीर को वाह्यरूप से जान-देख कर दोनो के अन्तर का पक्का ज्ञाताद्रष्टा वन कर आत्मा के निश्चय से डिगता नहीं। ऐमा व्यक्ति निरन्तर भेदविज्ञान के अभ्यास से आत्मनिष्ठ वन जाता है, आत्मा द्वारा आत्मा मे आत्मा का विचार करना है, और आत्मा शरीर मे भिन्न है मग प्रकार के भेदाभ्यास