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परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण
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किन्तु यथार्थ आत्मसमर्पण किस आत्मा की स्थिति मे और कैसे होता है ? इस बात को बताने के लिए श्रीआनन्दघनजी अगली गाथा मे मे कहते है
बहिरातम तजी अन्तर-आतमा-रूप थई थिर भाव, सुज्ञानी ! परमातमनुहो आतम भाव, आतम-अर्पण-दाव, सुज्ञानी ॥५॥
अर्थ । हे सुज्ञानी ! वहिरात्मभाव को छोड़ कर, अन्तरात्मा के रूप मे भावपूर्वक स्थिर हो कर अपनी आत्मा मे परमात्मत्व अवस्था की भावना करना ही आत्मसमर्पण का सच्चा दावा या उपाय है ।
भाष्य ।
आत्मसमर्पण का सच्चा उपाय इस गाथा मे आत्मसमर्पण का सहज स्वाभाविक और यथार्थ उपाय बताया है। सर्वतोभावेन आत्मसमर्पण ही वास्तव मे परमात्मां बनने का सरल उपाय है। इसमे हठयोग की, जप-योग की, या आसन-प्राणायाम आदि यौगिक क्रियाओ आदि के जटिलतम उपायो की अपेक्षा नही है । कोई भी किसी भी जाति, कुल, धर्म-सम्प्रदाय, देश या वेप का आत्मनिष्ठ व्यक्ति इस उपाय के द्वारा आत्मसमर्पण करके परमात्मपद को प्राप्त कर सकता है। इसमे न कोई बाह्य अध्ययन की जरूरत है और न ही वाह्य भौतिक साधनो या यन्त्र-मन्त्र-तंत्रादि मे पारगत होने की आवश्यकता है। इसमे सबसे बड़ी शर्त है-बहिरात्मभाव छोडने की , जो आत्मा के अपने हाथ मे है । यानी, शरीर, शरीर के अवयव-हाथ, पैर, मस्तक, इन्द्रियाँ, मन, बुद्वि आदि, तथा शरीर से सम्बन्धित कुटुम्ब, परिवार, जाति, देश आदि, एव शरीर के आथित धन, धरा, धाम, जमीन, जायदाद आदि मे जो तेरी आत्म-बुद्धि है, मैं और मेरापन है, आसक्ति है, तू यह मानता है कि ये मेरे हैं, मैं उनमे भिन्न नही हूँ, मैं इन सब वस्तुओ के रूप मे हूँ, इत्यादि प्रकार के अनात्मभाव की मान्यता को
१ वैदिक धर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ भगवद्गीतामे भी कहा है
जितात्मन. प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः । -- शीतोष्णसुखदु खेषु तथा मानापमानयोः ॥ अ. ६ श्लो. ३