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परगात्म-दर्शन की पिपागा
गुरु और वीतरागनाधिन धर्म इन तीनो का पाठ गुरु के मुख से सुन लेने मे और तथाकयिन अमुा वेप व अमुना जिया वाले गुर को गुरु बना लेने मात्र से वीतराग-परमात्मा के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गई। परन्तु सम्यग्दर्शन की प्राप्ति इतनी नुलभ नहीं है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए आत्मा की शुद्धस्वस्प और तदनुसार गुद आत्मदणा को प्राप्त देव (फिर उनका नाम चाहे जो हो, वे किनी भी धर्मनीर्य मे हुए हो । अथवा शुद्धात्मदशा को प्राप्त करने के लिए परभावो के प्रति आसक्ति, मूर्छा, मोह, आदि को छोड कर माधना करने वाले (वे चाहे जिम पय, धर्म-सम्प्रदाय या वेप के हो) गुरु या स्वर्गादि प्राप्ति के कराने वाले मोह [य] मार्ग-जन्ममरण के पथ-का छोड कर मोनमार्ग पर ले जाने वाले धर्म को धर्म मानना, विश्वास करना और अपनी आत्मा को इसी शुद्ध आत्मभाव रमण वाले पथ पर ले जाने के लिए अहर्निश प्रयत्न करना आवश्यक है। अन्यथा, वीतराग परमात्मा के सम्यग्दर्शन के बदले अन्धविण्बाग, गुम्टमवाद, जठा सतोप, मच्चे आत्मविकास मे रुकावट आदि चीजे ही पल्ले पटेगी। फिर तो हर कोई पढ़ा-लिखा तथाकथित व्यक्ति वेप पह्न कर भोलेभाले व्यक्तियों के कान मे यह मन्त्र-'देव अर्हन्त, गुरु निर्गन्य (अथवा अमुकनाम वाला) और केवलीप्ररूपित धर्म, ये तीन करो स्वीकार, हो जायेगा वेडा पार" फेंक देगा और लाखो तथाकथित मम्यग्दर्शनी अनुयायी आसानी से बना लेगा। जैगा कि अनेक धर्म-गम्प्रदाय के लोगो मे देखा जाता है।
श्रीआनन्दघनजी को इसीलिए कहना पडा--"मत मत भेदे रे जो जई पूछिए सहु थापे अहमेव" । सगी मतपथवादी अपने-अपने मत-पय या अपने नाम की रामकिन [सम्यक्त्व] दे कर वीनगग-परमात्मा के सम्यग्दर्शन के नाम से अपना सिक्का चलाने का प्रयाग करते देखे जाते है और वह तथाकथित सम्यग्दर्शन अमृत के बदले जहर का काम करता है-परम्पर विभिन्न धर्मराम्प्रदायो, पथो, मतो के शगटे बटा कर वैरविरोध फैला कर, राग-द्वेप वढा कर । ऐमे तथाकथित गम्यग्दर्शनियो मे मेरे-तेरे की, अपने उपाश्रयो , मान्यताओ, परम्पराओ, व अनुयायियो के अहत्व-ममत्त्व बढाने और दूसरो को नीचा दिखाने उनके प्रभाव को फीका करने की होड लगती है। इन सारी प्रक्रियाओ