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अध्यात्म-दर्शन
__मूल मे तो स्वय आत्मा, जो उपादानकारण है, उतनी प्रयत्न होनी चाहिए कि वह परमात्मदर्शन के योग्य बन गरे । उगीतिग निग्नट में वे अपनी आनन्दधनम्प वीनराग गुद्वन्यप जागा को भी सम्बोधिन नान्दा कहते हैं- हे अनन्त आनन्द रे धाम आत्मा, नेरी गापा हो जाय, यानी तू इतनी मशक्त, गमर्थ और कार्यक्षम बन जाय तो तु आगानी गे परमात्मदर्शन या गुदात्म-दर्शन कर सकती है। जब आत्मा शुद्धात्मभाव की आर नीयना ने वढनी है, तो अनावान ही गिद्ध-परमात्मा की गुमा प्राप्त हो जानी है। आत्मा का शुद्धता की ओर बढना ही गन्मान्मा या चानविय दर्शन है, अथवा मम्यग्दर्शन या लाभ है।
सारांग इन स्तुति में श्रीआनन्दधनजी ने परमात्मा के दर्शन (सम्यग्दर्गन) की महत्ता और दुर्लभता के विभिन्न कारणो का उल्लेख करते हुए वर्णन किया है। मतपधवादियो का अपने मन की स्थापना का आग्रह, हेतु (नक) वाद नयवाद और नागमवाद, घातीकमगर्वन-निवारण, पथप्रदर्गक का साथ, दर्शन की रट, आदि सभी उपायो मे परमात्मदर्शन की दुभता मिद्ध की है। घातीकर्मपर्वतो को हटाना तथा दर्णनकार्य की गिद्धि के लिए जीवनमरण की बाजी लगाना, ये दो दर्शनप्राप्ति के आदानकारण हैं, जिनके प्रगट होने पर कार्य अवश्य होता है। बाकी के गब निमित्तकारण तो उपादान कारण के शुद्ध और योग्य होने पर प्राय अपने-आप ही अनुकूल बन जाते हैं।
सचमुच, परमात्मा के सम्यग्दन के सम्बन्ध में श्रीआनन्दधनजी ने विभिन्न पहलुओ से वर्णन करके कमाल कर दिखाया है।
वास्तव में सम्यग्दर्शन का म्वरूप, व्यवहार और निश्चय दोनो दृष्टियो से विचारणीय है । साथ ही सम्यग्दर्शन के प्रकार, इसके गुणस्थान, इसे पुष्ट करने वाले ८ गुण, इसकी प्रगति व फल के सम्बन्ध मे तीन (योग) शुद्धि, शुधूपादि तीन लिंग, शमादि ५ लक्षण, कादि ५ दूपण, ५. भूपण (स्थैर्य, प्रभावना, भक्ति, कुशलता और तीर्थ सेवा), प्रावचनी आदि ८ प्रभावक, रायाभियोगेण धादि ६ आगार, नत्चनान-परिचयादि । गदहणा, ६ जगणा