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अध्यात्म-दर्शन
इस कारण 'वादे-वादे जायते तत्त्ववोध : 12 बदले वाद-विवार मगटे, चरविरोध और टेप का म्प ले लेता है । पिर गाहे यह हेतुवाद हो या आगमवाद वे यथार्य परमात्गदर्शन की प्राप्ति मे प्राय बाधा बनते हैं।
गुम्गम का अर्थ होता है-निष्पक्ष गुरु की प्रेरणा या मार्गदर्शन । आगमो मे बहुन मी वाने गुरुगम के अभाव में उलटे उप में परिणत या प्रचलित हो जाया करती है। प्रत्येक व्यक्ति में गुरु होने की योग्यना नहीं होती । केवल मस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओ का पण्डिन होने से, माम्यो का अधिक वाचन होने मात्र मे कोई गुरु नहीं हो सकता । मात्र में (धर्मोपदेशक) के सम्बन्ध में बहुत ही स्पष्ट बताया गया है -
जो अपनी आत्मा को परभावो (दुर्गुणो) मे सदा बचाता हो, इन्द्रियों और मन का दमन करता हो, जिसने चिन्ता-शोक आदि को नष्ट कर 'दिया हो, जो निश्चिन्त व निस्पृह हो, आश्रयो से दूर हो, यही परिपूर्ण (ममी हप्टियो में मर्यागपूर्ण) एव यथातथ्यस्प में शुद्ध धर्म का गथन कर सकता है।
जिमका गम्भीर अध्ययन हो, विचागे के अनुरूप आचार हो, भौतिकसृष्टि के बदले आध्यात्मिक दृष्टि मुन्थ्य हो, गुढ आत्मभाव मे निष्ठा हो, जो श्रद्धापूर्वक अहिंमा सत्य-आदि धर्मों का पालन करता हो, जिमने धर्म को जीवन में रमाया हो, वही गुरु कहलाने और शास्त्रों के सम्बन्ध में मार्गदर्शन देने का अधिकारी है।
अत. इस काल में निप्पक्ष, निरभिमानी, स्वयप्रेरित, दीर्घद्रप्टा, नवीनप्राचीन युगद्रष्टा, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के ज्ञान में कुशल गुरु का मयोग मिलना बहुत ही कठिन है। यही कारण है कि हेतुवाद, नयवाद या आगमवाद के द्वारा परमात्मा के दर्शन की प्राप्ति होने के बदले विवाद, विरोध, झगडा, या . विपमभाव या सेद चढ़ने की आशका है , जिमका सकेन श्रीआनन्दघनजी ने इस गाथा के अन्त में कर दिया है।
"आयगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए अणासवे । ते धम्म सुद्धमाइक्खंति, पडिपुन्नमणेलिसं ॥"