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परमात्म-दर्शन की पिपासा
आगमवाद से भी दर्शनप्राप्ति कठिन अव रही आगम प्रमाणो द्वारा प्रभुदर्शन प्राप्त करने की बात, वह भी व्यर्थ श्रम हे । क्योकि आगमो के पाठो मे परमात्मदर्शन का निर्णय करने मे कठिनाई यह है कि आगमो मे जहाँ भी पूर्वापरविरुद्ध, असगन, अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के मन्दर्भ मे कही हुई वाते आएंगी, वहाँ माधक की बुद्धि की गाडी अटक जाएगी , वहाँ निप्पक्ष गुरु की धारणा की जरूरत पडेगी और निष्पक्ष, सापेक्षवादपूर्वक वस्तुतत्व का यथातथ्य प्रतिपादन करने वाले गुरु वहुत ही विरले हैं। आगम का अर्थ है-वीतराग आप्तपुरुपो द्वारा भापित और गणधरो द्वारा ग्रथित-सकलित मूलसूत्र, जिनमे जैनदर्शन के चारो अनुयोगो के सम्बन्ध मे बाते कही गई हो । आगमो मे बहुत-सी बाते प्रचलित और उपादेय होती है, वहुत-सी हेय और ज्ञेय होती है । कई स्थलो पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार अमुक परिस्थिवश उत्सर्गसूत्र के वदले अपवादसूत्र होते हैं, कई जगह विभिन्न आशयो से पृथक्-पृथक् विधान व्यवहारचारित्रपालन के हेतु किये गए हैं, ऐसी स्थिति में सामान्य साधक की वुद्धि गडबड या शका मे पड जाती है और उस समय यथार्थ निर्णय करने के लिए निष्पक्ष, सच्चे गुरु का मिलना भी कठिन हो जाता है। क्योकि आगमो मे बहन-से विवादास्पद स्थलो मे परम्परागत अर्थ या सम्प्रदायगत धारणाएँ चलती हैं, किसी विवादास्पद विषय के बारे मे किमी गुरु मे पूछने पर प्राय वह जिस सम्प्रदाय--परम्परा का होगा, उसे जैसी धारणा होगी, तदनुसार ही प्राय अर्थ करेगा या धारणा बताएगा। ऐसी स्थिति मे परमात्मा के यथार्थ दर्शन की प्राप्नि तो खटाई मे पड जायगी , व्यक्ति एक के बद ने परी परम्परागत वात को ही परमात्मा का दर्शन समझ कर अपना लेगा। इसलिए शास्त्रप्रमाण द्वारा भी परमात्म-दर्शन की प्राप्ति होना कठिन है।
अत सापेक्षदृष्टि (अनेकान्तदृष्टि)-प्ररूपक जब वादविवाद के अखाटे मे उतर जाता है, तब उसे परमात्म-(मत्य) दर्शन तो होते नहीं, वह अपने अहकार मे ही सतुष्टि करता है, जो पहले से जाना-माना है, उसी को मत्य ममझ कर परमात्मा के दर्शन के नाम मे चलाता है।
वाद-विवादो में अगर विजिगीपाभाव होता है, गिजामाभान नहीं ।