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४ . श्रीअभिनन्दन-जिनस्तुति
परमात्म-दर्शन की पिपासा (तर्ज--आज निहेलो रे दीमे नाईनो रे, राग-धनानी, सिंधुडो)
अध्यात्म के प्रमिक विकास पथ पर आया हआ माधक परमात्मरोवा के बाद परमात्मा के दर्णन का ध्यामा वन कर, अनेक विनवागाजा और गनाटा के बीच भी दर्शनोन्मुक होता है और पुवार उठना है
अभिनन्दन जिन दरिसण तरसीए, दरिसण दुर्लभ देव । मत-मतभेदे रे जो जई पूछीए, सह थापे अहमेव ।।
अभि० ॥१॥
अर्थ में अभिनन्दन नामक चतुर्य जिनेन्द्र (वीतराग परमात्मा) के दर्शन के लिए तरस रहा हूँ; परन्तु हे परमात्मदेव ! आपका दर्शन बहुत ही दुर्लन हो रहा है। प्रत्येक मत, पथ, सम्प्रदाय और दर्शन के अग्रगण्यो के पास जा कर पूछते हैं कि परमात्मदर्शन कैसे होगा? तव उत्तर मे सभी मत-पंय-सम्प्रदाय वाले अलग-अलग मत (अभिप्राय) मे अपनी-अपनी मान्यता की स्थापना करते हुए कहते हैं ~ "हमारा मार्ग ही प्रभुदर्शन का सच्चा मार्ग है , हम हो परमात्मा का दर्शन करा देंगे।" अथवा प्रत्येक मत-पंय वाले कहते हैं-"यहीं आ जालो । मैं ही परमात्मा हूँ।"
भाप्य
परमात्मदर्शन क्यों, क्या और कैसे ? परमात्ममेवा की प्रथम भूमिका के द्वारा सम्यग्दर्शन के प्रयम मोपान पर चढा हुआ साधक ठेठ मजिल तक पहुँचना चाहता है, उसे केवल इतने से ही सन्तोप नहीं होता। वह सम्यग्दर्शन के अन्तिम छोर तक पहुँच कर परमात्मा के भलीभांति दर्शन करना चाहता है । और सम्यग्दर्शन के पथ पर