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परमात्मा की सेवा
अथवा 'मेरी याचना आनन्दघनरसरूप है , यह अर्थ भी हो सकता है। यानी मेरी परमात्ममेवा की याचना आनन्दमगलदायिनी है। मुझे ससार की कोई भी वस्तु परमात्मसेवा के समान आनन्ददायिनी नहीं लगती। यही अनुपम आनन्ददायिनी है। इसी की याचना मै करता हूँ। मुझे इसी याचना में आनन्द है। ...
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सारांश इसमे श्री सभवनाथ परमात्मा की स्तुति के माध्यम से श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मसेवा का रहस्य खोल दिया है। प्रारम्भ मे अध्यात्मयोगी के लिए परमात्मसेवा सर्वप्रथम आवश्यक बता कर उसके लिए प्राथमिक भूमिका के रूप मे अभय, अद्वेप और अखेद की साधना करना जरूरी बताया है। चूंकि वीतरागपरमात्मा स्वय' अभय, वीतद्वेप, (वीतराग) और खेदरहितहैं, इसलिए उनकी सेवा के लिए उक्त तीनो गुण प्राथमिक भूमिका के रूप में शुद्धात्मभावरमणकर्ता साधक मे होने आवश्यक है। इसके पश्चात् परमात्मासेवाफल के रूप में चरमावर्त, चरमकरण, भवपरिणति परिपाक, मिथ्यात्त्वदोपनिवारण, सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति, प्रवचनवाणी की प्राप्ति आदि बताए है । तदनन्तर परमात्मसेवा की प्रथम भूमिका प्राप्त करने के तीन मुख्य उपाय , फिर परमात्मसेवारूप कार्य के लिए कारणो की अनिवार्यता बता' कर कार्यकारणभावसम्बन्ध को न मानने वाले तथा परमात्मसेवा को सुगम समझ कर अपनाने वाले मुग्ध लोगो को चुनौती.दी है। और अन्त मे, अगम्य, अनिर्वचनीय, अनुपम परमात्मसेवा प्राप्त होने की प्रार्थना भक्ति की भाषा मे करते हुए प्रस्तुत विषय का उपसहार किया है । सचमुच, इस स्तुति मे परमात्मसेवा का रहस्य अध्यात्मयोगी श्री ने खोल कर रख दिया है।
.१ . भयवेराओ उवरए। २ 'खेयन्नए से कुसले महेसी'-(सूत्रकृताग वीरस्तुनि)