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परमात्मा की सेवा
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हो सकती है। केवल शब्दादि-विपयो मे आसक्त, सासारिक स्वार्थ मे मग्न, वर्गादि ऋद्धिसिद्धि के लोभ मे डूवे हुए अथवा अपनी नामवरी या प्रसिद्धि के लिए परमात्मा का प्रतीक बना कर उनके मुकुट या अन्य सागारिक पदार्थ चढा देने मात्र से परमात्ममेवा नहीं हो सकती। परन्तु मुग्ध लोग इस परमात्म-सेवा को, जो १ साधारण व्यक्ति की पहुंच से बाहर है, जो ससार मे अनुपम वस्तु है, उसे बिलकुल आसान, सुगम और झटपट सिद्ध होने वाली चीज मानते है और उमी दृष्टि मे परमात्मसेवा के वास्तविक कारणो को तिलाजलि दे कर सेवा के नाम पर सस्ता सौदा अपनाते है, जिसमे 'हीग लगे न फिटकरी रंग चोखा हो जाय' चाहते है। परन्तु परमात्मसेवा को वे जितनी सरल मानते हैं। उतनी सरल नही है, इसमे तो बाह्य (पर) भावो को छोड कर
आन्तरिक भावो की गहराई में जाना पड़ता है । सन्त कबीरजी भी यही वात कहते हैं। २
परमात्मसेवा की प्रार्थना : साधक की *ति मय नम्रभाषा इस स्तुति के अन्त मे योगी श्रीआनन्दघनजी ऐसी कठोर परमात्मसेवा की सम्भवदेव प्रभु मे याचना करते है । प्रश्न होता है- साधक को तो स्वय पुरुषार्थ द्वारा परमात्मसेवा सिद्ध करनी चाहिए, उसे परमात्मा से मागने की क्या जरूरत है ? वास्तव मे निश्चयनय की दृष्टि से तो परमात्मसेवा या किसी भी आध्यात्मिक अनुष्ठान के लिए परमात्मा या किसी भी 'अव्यक्त शक्ति से साधक को मागने की जरूरत नहीं होती। और न ही वीतरागपरमात्मा किसी को कोई चीज देते-लेते हैं। मगर व्यावहारिक दृष्टि से आनन्दघनजी अपनी नम्रता प्रदर्शित करने के लिए भक्ति की भाषा मे परमात्मा के सामने इस प्रकार की प्रार्थना कर बैठते है तो कोई अनुचित भी नही है । और फिर श्रीआनन्दघनजी परमात्मा से किसी मासारिक वस्तु या प्रसिद्धि, पदवी, ऋद्धि, सिद्धि आदि की कोई माग नहीं करते, वे तो अध्यात्मयोगी के लिए
१ नीतिकार कहते हैं-'सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्य '। मेवाधर्म
अत्यन्त गहन है, वह योगियो के लिए भी अगम्य है, साधारणजनो की तो 'वात ही क्या? २ भक्ति भगवन्त की बहुत बारीक है, शीश सौंपे विना भक्ति नाहीं।
नाचना, कूदना, ताल का पीटना, राडिया खेल का काम नाहीं ।