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परमात्म-दर्शन की पिपासा
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अथवा कई लोग ऐसे होते है, जो मतमतान्तर के झगडे मे पड कर अपने पाथिक या साम्प्रदायिक कदाग्रहो, पूर्वाग्रहो, या मिथ्या मान्यताओ, या मिथ्याज्ञान, के चक्कर मे ऐसे फस जाते हैं कि उससे छूटना कठिन हो जाता है। ऐसे, दुराग्रही और आँख खोल कर न दखने वालो के लिए दर्शनप्राप्ति सामान्यरूप से कठिन है। ____इसी प्रकार आत्मा के सम्बन्ध मे ६ स्थान (बाते) बताए गए हैं, जिन्हे मानना या जिन पर सोचना दर्शनप्राप्ति के लिए अनिवार्य है-(१) आत्मा अवश्य है, (२) आत्मा शाश्वत है, अविनाशी है, (३) जीव पुण्य और पाप का कर्ता है। (४) जीव कृतकर्मों का भोक्ता है, (५) योग्य पुरुषार्थ होने पर जीव की मुक्ति होती है, (६) जीत्र की मुक्ति के लिए उपाय भी है । इन ६ स्थानको का विचार, स्वीकार और स्पष्ट जानकारी न हो तो दर्शनप्राप्ति नही होती, दर्शनप्राप्ति के अभाव मे वह जीव ससार मे भटकता रहता है , मगर वह उसका कारण नहीं जान पाता और चक्कर खाता रहता है। इसलिए विभावो या पौद्गलिक भावो मे रमण करते रहने वाले जीवो को सामान्यरूप से दर्शन की प्राप्ति दुर्लभ है। ।
व्यवहारनय की दृष्टि से दर्शनप्राप्ति के ३ लिंग (चिह्न) वताए है(१) शुश्रूषा-जिसे दर्शन सम्बन्धी तथ्यो और तत्त्वो को सुनने-समझने की अर्हनिण तमन्ना हो तथा जो दूसरे सब काम छोड कर दर्शन की विचार-चर्चा मुनने के लिए दौड पडता हो, उसमे उसे खूब आनन्द आता हो, वह शुश्रू पालिंगी है । (२) सेवा-जिसे धर्मकरणी या धर्माचरण मे बहुत आनन्द आता हो, ऐसा व्यक्ति सेवा-लिगी है । तथा (३) वयावृत्य-जिसे देव अथवा गुरु की सेवा, परिचर्या, वैयावृत्य करने मे आनन्द आता हो, रोगी, वृद्ध, तपस्वी, आदि की सेवा मे जिसकी दिलचस्पी हो, वह वैयावृत्यलिंगी है।
इन तीन लिंगो को प्राप्ति वाला दर्शन प्राप्त होना बहुत कठिन है। क्योकि इन तीनो के लिए अपना स्वार्थ, स्पृहाएँ, व इच्छाएँ छोड कर मानसिक एकाग्रता, अनुशासनशीलता एव इन्द्रियसयम को अपनाना पडता है। ये माधारण प्राणी में होते नही , इमलिए सामान्यरूप से दर्शन की प्राप्ति दुर्लग बताई है।