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अध्यात्म-दर्णन
निक्षेपो आदि द्वारा सर्व प्रकार से निर्णयस्प आपका विशेष दर्शन तो और ही दुर्लभ है । पयोफि जैसे कोई अन्धा हो और फिर शगत्र आदि के नशे से घिरा हो तो पहले तो वह सूर्य और चन्द्रमा के स्प को ही देख नहीं सपता, तो फिर इन दोनो के स्वरूप का पृथक-पृथक विश्लेषण कसे कर सकता है ? बसे हो विवेकतेत्र से रहित और उनमें भी मत, सम्प्रदाय, पंथ और दर्शन आदि के आग्रहस्प मद से मत बने हए मतपश्चादी सामान्यतया आपका दर्शन प्राप्त नहीं कर सकते तो विभिन्न नयप्रमाणादि द्वारा आपफे (सुद्धात्मा के) विश्लेषणपूर्वक विशेष दर्शन तो प्राप्त ही कमे कर सकते हैं।
भाष्य
सामान्य और विशेषरूप से दर्शन की दुभता पूर्वोक्त गाथा में परमात्मदर्शन की दुर्न मना गा एक कारण बताया 4-~मतपथवादियों का मतामह । इस गाया में उगी या विजेग- स्पष्टीकरण पिया गया है कि उसका नतीजा गया आता है, परमात्मदर्शन की दुर्लभता यां इममे मामान्य और विशेप दो दृष्टियों में श्रीनानन्दधनजी ने नोना है। यहाँ परमात्मा के दर्शन के दो प्रकार वनाए है-गामान्य और विशेष । सामान्यरूप मे परमात्मा (अभिनन्दन) के दर्शन है वे ही आत्मा , (मरे) दर्शन है। जो मेरी आत्मा के दर्शन है, वे ही परमात्मा केट। मंगे और इनकी आत्मा (द्रव्य) के म्यूल पर्याय में भले ही भिन्नता हो, मामान्यप से स्वरूपदर्शन में कोई भिनता नहीं है। . ____वात्मा और परमात्मा दोनो यो आत्मगुणो- ज्ञानाादाटा या चैतन्यम्वरण मे कोई अन्नर नहीं। यह मामान्य दशन है।
इमी दृष्टि से कहा है कि नागान्यरूप में गमम्त गशारी आत्माओं को परमात्मदर्शन या शुद्धात्मदर्शन दुर्लभ है। बहुत-मे प्राणी तो आत्मदर्शन का विचार मी नहीं करते, वे मसार के व्यवनार या अपने मामारित क्रियाकलापो या शरीर, परिवार व गन्तान आदि के भरण-पोगण आदि मानारिख प्रवृत्तियो मे इतने रचेपचे रहते हैं, अथवा विविध व्यसन, निद्रा, गपशप या आलस्य में इतने ग्रस्त रहते है कि उन्हें दर्शन के सम्बन्ध मे मोचने-विचाग्ने तक की फुरगत ही नहीं गिननी, दर्शन प्राग्न गारला नो दूर की बात है।