________________
अध्यात्म-दर्शन
अर्थ
कारणो के योग से ही कार्य निप्पन्न होता है, ऐसा पायगाम्प्रीय सिद्धान्त है, इसमे विवाद को कोई अवकाश नहीं है । परन्तु जो लोग यह कहते हैं कि हम अनुकूल कारणों के विना हो कार्य सिद्ध कर (बना) लगे; यह उनका मनमाना बकवास है, अपने मत का मतवालापन है ।
भाष्य
कारण और कार्य का अविनामाघी सम्बन्ध यह केवल न्यायगाम की ही बात नहीं, विश्व में प्रत्येक मानव श्री अनुभवसिद्ध बान है कि वारण होने पर ही कार्य सम्पन्न होना है। इसलिए यह निविवाद है । परन्तु कौन-से कारणों का किन-किन कार्यों के होने में हाय है, यह निश्चितरूप में नहीं बताया जा सकता। इसलिए कई ईश्वरवादी, देववादी या अव्यतागक्तिपूजक लोग अयवा प्रकृतिवादी आननी मनुष्य ऐमा कह देते हैं कि हम किसी भी कार्य के लिए कारणो को जुटाने की आवश्यकता नहीं। ईश्वर चाहेगा, अमुक देव की कृपा होगी या फला देवी या अदृश्यशक्ति हम पर प्रसन्न होगी, या प्रकृति हमारे अनुकूल होगी तो कायं अपने आप ही हो जायगा। हमे कुछ करने-धरने की जरूरत नहीं। परन्तु उनकी यह वाते वेमिरपर की हैं । वे स्वय रोटी बनाने का और रोटी मुंह में डालने का क्यो प्रयास करते है ? वहीं उन्हें अपने आराध्यदेव या मान्यशक्ति के महारे को छोड कर समय आने पर, उक्त वस्तु का स्वभाव नद्रप परिणत होने का हो, जपना कर्म भी अनुकूल हो, बैगा कार्य करना नियत भी हो, तो भी स्वय पुष्पार्थ करना होता है।
प्रत्येक कार्य में कोई न कोई कारण अवश्य होता है । कारण के अभाव मे कोई भी कार्य नहीं हो सकता । मूल मे कारण के दो रूप होते हैं--उपादानस्प और निमित्तस्प । जो कारण अन्तत स्वय स्वयं कार्य-रूप में परिणत होता है, उसे उपादानकारण कहा जाता है। जो कारण कार्य की सम्पन्नता में अनुकूल (सहयोगी) रहता है और कार्य हो जाने के बाद अलग हो जाता हूँ वह निमित्तकारण बहलाता है। उदाहरण के लिए, कल्पना कीजिए, घडा एक कार्य हे । मिट्टी उममे उगादान कारण है , परोकि मिट्टी स्वय अन्त में घटरूप