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परमात्मा की सेवा
स्वाध्याय की डीगे मार कर आत्मवचना और समाजवचना करते देखे ., जाते है।
- इसलिये आत्मा से सम्बन्धित उपर्युक्त बाते जिन ग्रन्थो मे निश्चय और व्यवहार दोनो 'दृष्टियो से अकित हो, जो अध्यात्म 'को जीवन मे रमाने और पचाने वाले अनुभवी मनीषियो, चारित्रशील महान् ‘आत्माओ द्वारा लिखे गए हो, जिन ग्रन्थो मे उल्लिखित बातें सर्वज्ञ आप्तवचनो से सम्मत हो, सिद्धान्त, युक्ति, तर्क, प्रमाणो, और नयो से सिद्ध हो, जो अपने पूर्वाग्रह, परम्पराग्रह, साम्प्रदायिक पक्षपात आदि से दूर हो, जो जीवन के उच्च आदर्शों और ध्येय को स्पष्टत प्रतिपादन करते हो, ऐसे ग्रन्थ आध्यात्मिक ग्रन्थ है। ऐसे ग्रन्यो का एकाग्रतापूर्वक श्रवण, मनन, निदिध्यासन और युक्ति, प्रमाण, नय, हेतु, कारण आदि के विचारपूर्वक परिशीलन करने, और अपनी आत्मा के साथ उन वातो का ताल-मेल बिठाने का अभ्यास करना सच्चे माने मे 'स्वाध्याय' है। ऐसे साधक को अनायास ही इस प्रकार के स्वाध्याय का वातावरण एव प्रवलनिमित्त मिल जाता है, आध्यात्मिक ग्रन्थो की जिज्ञासा और मीमासा-पूर्वक प्राप्त हुआ स्वाध्याय साधक की आध्यात्मिक प्रगति का परिचायक है।
दूसरे शब्दो मे कहे तो परमात्मसेवा की प्राथमिक भूमिका प्राप्त करने का फल बता कर श्रीआनन्दघनजी ने वैसी भूमिका प्राप्त करने मे निमित्तकारणरूप ये सब वस्तुएँ बता दी हैं। क्यो अभय, अद्वैप और अखेद-अवस्था के परिपक्व बनाने के लिए पापघातक साधुपुरुप का सत्सग, चित्त मे अकुशलता का ह्रास, एव अध्यात्मग्रन्थो का श्रवण-मननपूर्वक सयुक्तिक अभ्यास बहुत आवश्यक है। इसलिए ये तीनो बाते, पूर्वोक्त तीनो गुणों की प्राप्ति में प्रेरक निमित्तकारण, बन जाती है। इस कार्यकारणभाव सम्बन्ध को न मान कर, जो व्यक्ति परमात्म-सेवारूप कार्य के लिए आध्यात्मिक विकास और उसके कारणो को उड़ाने का प्रयास करते हैं, उन्हे फटकारते हुए श्रीआनन्दधनजी अगली गाथा मे कहते है
कारणजोगे हो कारज नीपजे रे, एहमा कोई न वाद। कारण विण पण कारज साघीए रे, ए निजमत उन्माद ॥
सम्भव०॥५॥
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