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अध्यात्म-दर्शन
माथ रह कर भी | प्ठत्व अजित करने में लिए निफर रहा कि उनका उपादान शुद्ध न था, जबकि गौतम महान् बनने में सफल हो गया था।
इसलिए अपनी योग्यता, निजशक्ति (उपादान) को परमात्ममेवा (गुन्द्धआत्म-रमणता) स्प कार्य के लिए जागृत करना आवश्यक है। उपादान जागृत होते ही निमित्त अपने आप उपस्थित हो जायेंग । परन्तु यह बात निविवार है कि परमात्ममेवा-रूप कार्य के लिए उपादानगारण के नाथ-माय पूर्वोक्त निमित्त कारणो का होना अवश्यम्भावी है।
कार्य-कारण-सम्बन्ध को न मानने वालो का मत प्रस्तुत परमात्मसेवा के सम्बन्ध में एकान्त भक्तिवादी, या एकान्त निश्चयदृष्टिवादी अयवा अव्यक्तशक्तिवादी वा एकान्त नियति आदि पत्रकारणवादी अयवा एकान्त परमात्मात्रयवादी या इसी प्रकार की मान्यता वाले लोगो का कहना है कि परमात्ममेवारूप कार्य को हम पूर्वोक्त कारणों के विना ही सिद्ध कर लेंगे। हमे उक्त कारणों के झझट में पड़ने या अपनी आत्मा को किसी कप्ट में डालने की जरूरत नहीं, अपने आप परमात्मसेवा का सब काम हो जायगा।
एकान्त-भक्तिमागियो का कहना है-न कोई भय, द्वप या गेद छोडने की जरूरत है और न किमी प्रकार का त्याग, तप या स्वभावरमणरूप पुरुषार्थ (नान दर्शन-चारित्र में पुरुषार्थ) करने की ही आवश्यकता है। ये मब स्वकर्तृत्ववाद के झझट हैं । इन बातो के चक कारमें न पड कर मन में दृढ विश्वास कर लो कि परमात्मा जब चाहेंगे, तब अपने आप उनकी मेवा का कार्य हो
जायगा।
एकान्त निश्चयाभासियो का कहना है,-किसी प्रकार का त्याग, तप या चारिन मे पुरुषार्थ आदि सब व्यवहार की बातें है, असद्भूत हैं, ये सब शरीर से सम्बन्धित वाते है, इनमे परमात्मा की सेवा मे कोई सहायता नहीं मिल सकती । जव आत्मा से परमात्मसेवा होनी होगी, तब अपने आप हो जायगी आत्मा भी अपने आप तदनुरूप शुद्ध हो जायगी। उपादानस्प आत्मा शुद्ध होगी तो निमित्तकारणो की कोई जरुरत ही नहीं रहेगी। परतु व्यवहार का और निमित्तकारणो का यह अपलाप वस्तुत निश्चयनयाभाम ही सूचित करता है।