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अध्यात्म-दर्णन
जान के गजाने को गाकर आत्मा में अगुय आनन्दको अनुगानि होती है, आत्मा अपने अभिन्न गाणी माग में पा कर उगंग नगर हो जानी है। आध्यात्मिक ज्ञान मे ओत-प्रोत व्यक्ति वाना-गीना, गोना, नवा अन्य भारी गि चिन्नाएं सर्वथा भूल जाना है। आध्यागमन्यो के गाना म्याध्याय से व्यक्ति को मान-समाधि लग जाती है, उसको प्रत्येक यन्तु नूयं के प्रकार नो तरह हम्तागनकालन् गालूम हो जाती है। में कौन हूँ, परमात्मा मौन है? ममार के अन्य प्राणी कीन है। उनके साथ तथा गरोगदि जलपदार्थों या परपदार्थो के माथ मेग क्या और वितना गम्बन्ध है ? कैगे जात्मा पों में। बन्धन में जकड जाता है ? कंगे छूट सकता है? कार्गवन्धन के मिलने प्रकार हैं ? मुक्ति के क्या-क्या उपाय है। जागा की विपरमण मेनिया में मुदृढ हो सकती है ? आत्मा परभावो मे जासक्त क्यो हो जाता है ? आदि तमाम वाले उसके जाननेयो गामने स्पष्ट हो जाती हैं।
किन्तु तोतारटन की तरह आध्यात्मिक ग्रन्थों की शब्दावली या पारि भापिक शब्दो को केवल घोट लेने का नाम ही स्वाध्याय नहीं है। और ही अर्थ समझ-बूझे विना किमी ग्रन्य को पट-गुन लेने को ही स्वाध्याय कहा जा सकता है। इसलिए श्रीआनन्दघनी का स्वर गूज उठना है.---'ग्रत अध्यातम श्रवण-मनन करी रे परिशीलन नय हेत', अर्थात् अध्यात्मग्रन्यो पर केवल पढना-सुनना ही नहीं, अपितु नयो और हेतुओ के माय मननपूर्वर .परिशीलन करना ही वास्तविक स्वाध्याय है, और इस प्रकार के स्वाध्याय में साधक की आध्यात्मिक प्रगति की परख हो जाती है। केवल द्रव्य, गुण, पाम का रटन करने वाला या अध्यात्मग्रन्यो को सूने मन से या विद्वत्ता प्रदर्शित करने की दृष्टि से पढने या मुनने-सुनाने वाला, अथवा आत्मा-परमात्मा को लम्बी-चौडी, व्यवहार से विल्कुल असम्बद्ध चर्चा करने वाला, या आध्यात्मिकता में पहले नैतिकता या धार्मिकता की बू द भी जीवन मे न हो और कोर आध्यात्मिक तर्क-वितर्क करने वाला व्यक्ति वास्तविक स्वाध्याय मे कोसो दूर है। . उसे आध्यात्मिक या आध्यात्मिक विकास की पगडडी पर चलने वाल “नही कहा जा सकता। कई दफा तो इस प्रकार के तथाकयित अध्यात्मवा ' अध्यात्मशून्य जीवन बिताते हुए लम्बी चौडी आध्यात्मिकता, तत्त्वज्ञान अ