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परमात्मा की सेवा
भय, द्वेष, नदी
मेवन (स्पर्श या मिलन) करना हो तो उसके लिए प्राथमिक योग्यता के रूप मे उसमे भयरहितता, द्वापरहितता और खेदरहितता होनी आवश्यक है । इन तीनो के विना आत्मा मे परमात्मदेव की सेवा की योग्यता नहीं आती।
किसान नेत मे बीज बोने से पहले भूमि को साफ व समतल करता है, उसमे काटे, ककड, झाडझखाड आदि हो तो उन्हे उखाड फेंकता है, जमीन ऊवडखावड हो तो उने फोड कर दताली से सम बनाता है । इसी प्रकार आत्मस्पी भूमि में सेवारूपी वीज बोने से पहले आन्मभूमि मे रहे हुए भय, तुप, खेद आदि काटे-ककडो को साफ करके आत्मभूमि को समताभाव से समतल बनाना आवश्यक है। तभी परमात्ममेवा का यथार्थ फल मिल सकता है। भय, द्वेष, खेद से ककरीली, कटीली या पथरीली बनी हुई ऊबड़-खाबड (विषम) मनोभूमि या आत्मभूमि मे यदि परमात्मसेवारूपी बीज बो दिया जायगा तो वीज तो निष्फल होगा ही, परिश्रम भी व्यर्थ जायगा । इसीलिए परमात्मसेवा के लिए तत्पर साधक को पहली भूमिका के रूप मे ये तीन बातें अपनानी जरूरी है। आगे की भूमिका के लिए तो इससे भी बढकर उच्च योग्यता की अपेक्षा है, यह बात भी 'पहली' शब्द से ध्वनित होती है।
अव आगे की गाया मे श्रीआनन्दघनजी स्वय इन तीनो के अर्थ बताते है'भय' चंचलता (हो) जे परिणामनी रे, 'द्वष' अरोचकभाव । 'खेद' प्रवृत्ति हो करतां थाकिए रे, दोष अबोघ= लखाव ॥सभव०२॥
अर्थ परिणामो (मनोभावो) अथवा विचारो की चचलता (अस्थिरता) ही भय है, परमात्मसेवा के प्रति अरुचि, अथवा मन के प्रतिकूल पदार्थ के प्रति या मुक्ति, मुक्तिमार्ग या मुक्तिमार्ग के आराधक के प्रति घृणा अप्रीति दोष है, इसी प्रकार परमात्मसेवा की या सयमादि धर्म की प्रवृत्ति क्रिया करते हुए ऊव जाना, घबरा जाना, थक जाना या रुक जाना खेद है। परमात्मसेवा मे बाधक ये तीनो दोष अवोध (नासमझी, अज्ञान या मिथ्यात्व) की निशानी हैं ।।
शाण्य
परमात्मसेवा मे प्रथम विघ्न . भय परमात्मसेवा अन्ततोगत्वा शुद्ध आत्ममेवा मे फलित होती है। अत