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अध्यात्ग-दर्शी
ममय थक जाना, रक जाना, कब जाना लगताइट पंदा होना गंद है, और . वह भी परमात्ममेवा में विघ्न ।
बहुत-गी वान हम देखने है कि नाधक गरमान्ममैया की माधना गिनाकरता अब जाता है और नाह उठता है-अब नहीं नगा र प्रवृनि यो करें ।
नने वर्ष तो करते-कग्ने हो गये । गव या तो वर शुसान्मगावरगणना गी या मोक्षमार्ग की प्रवृति को वेगार यमा कर जी-नंग विना गन गाया, अथवा ढुसला कर उने बिननुल ठोट देना है । अथवा चिनी आत्मसाधर को वर्षों तक परमात्ममेवा की माधना करते हो जाते हैं और उगे उगने अनुकूल अभीष्ट फल नहीं नजर आता अथवा प्रतिकून फल नजर आता है, या उसकी उक्त नाधना के साथ सजोची हानीरिक पनाकाक्षा पूर्ण नहीं होती, नव या तो वह उस साधना के प्रति अश्रदा प्रगट करना है, या रोगांन कर वहीं स्थगित कर देता है। जयवा आत्मसाधना या मोभमाधना की प्रवृत्ति करते-करते फल के लिए उतावला हो कर फल के शीघ्र दृष्टिगोचर न होने पर काशील हो कर बिना किसी प्रकार का ममाधान अथवा आत्मनिरीक्षणअवलोकन या अपनी भून का पर्यालोचन-परिमार्जन मिरे विना नना उना प्रवृत्ति करने मेक जाता है। गेमर नेद के ही प्रकार है जो परमानागेवा के मार्ग मे बहत बडे विघ्न हैं।
ये तीनो दोष अबोध के परिचायक हैं परमात्मसेवा के मार्ग में वाधक या विघ्नमारक, भय, द्वीप और मेद नामक ये विदोप वात-पित्त-कफ नामक निदोष के समान माधक के अवोध के चिह्न है। ये तीनो दोष आत्मयाधक मे हो तो ममलना चाहिए कि उनमें परमात्मसेवा के बारे में नासमझी है, अज्ञान है अथवा अल्पज्ञान है। उगे पता ही नहीं कि ये तीनो दोप मिल कर उसकी परमात्ममेवा-साधना की जड कैमे काट रहे है। परमात्ममेवा के साधक को अपनी साधना के दौरान जहां - परिणामो मे किसी भी प्रकार की चचलता (अस्थिरता) दिखाई दे, अथवा म्वभावरमणस्प परमात्मसेवा या मुक्तिमार्ग की प्रवृत्ति करते समय किमी व्यक्ति, परिस्थिति, शरीर या शरीर मे मम्वद्ध वस्तु या प्राणी के प्रति अमचि या घृणा पैदा होने लगे, अथवा आत्ममाधना-रूप परमात्मसेवा (मुक्तिमार्ग)