________________
अध्यात्म-दर्शन
हो जाती है तो वह अपने स्व-स्वभाव में रमणना की ओर गम्गा हो जाता है, उग ममय उगकी ममारपरिणति (चि, ग्वभाव या आदन) का अन्न आ जाता है, उमा किनारा आ जाता है । नागाग्गि बन्तुओं में दिलनापी लेने की उगको गीगा आ जाती है । गयोकि अब उसकी भुनियाग हो चुकी
गलिए उमड़ी नमाग्याना (भवम्पिनि) की परिणनि पा कर जीर्ण-श्रीगं तो चुकती है। मतलब यह है कि एमे नाप को म प्रकार की मारिणनिता किनारा दिखाई देने लगता है, तब ममार के प्रनि परिणति का अन्त तो आ जाता है, मगर अभी तक ममार का मर्वथा भन्न नहीं आया, उमो अन के लिए तो जब वह मम्यग्दर्गन पाने के बाद 'म्बभागमण' में मनन पुगपा करता है ; नभी आता है।
चौथी उपलब्धि : दोप-निवारण यहाँ पच-कारणसमवायो का योग किन प्रकार होता है, यह भी विचारणीय है । पहला चरमावर्त (अन्तिम पुदगलागवनं) कान नाममा पारण का द्योतक है. दूसरा अनिवृत्ति करण पुस्पार्थ नामका कारण या सूचना है, और तीमग भवपरिणतिपरिणाम स्वभाव भवितव्यता और कम नामा कारणो का द्योतक है । अत पांची कारणो के ममबार के होने पर उक्त नीनो उपलब्धियो के माध्यम से उपगमनम्ययन्त्र नक माधन पहुँच जाता है। यहां तमा जब साधक पहुंच जाता है तो समार-मम्मुनता का दोष या मिथ्यारोप हट जाता है , अथवा प्रकारान्तर में कह तो अनन्नानुबन्धी गोध्र, मान, माया और लोभल्प तीव्रतम व कठोरतम कपायदोप मिट जाता है। यह ध्यान रहे कि उन भूमिका में स्थित साधक में अन्य प्रकार ने दोपो का नया नाश नहीं होता , मगर वे दोप दूर हट जाते है।
पचम उपलब्धि · सम्यग्दृष्टि का खुलना जब उत्त माधक मे मिथ्यात्व का दोष दूर हट जाता है, हालाकि उसमे अभी सम्यग्दर्शन (क्षयोपशम) के नाव चल, मन, और भगाढ दोय रहते है, तथापि अनिवृत्तिकरण के अन्तर्गत अन्तरकरण करने से उमकी दृष्टि सम्यक रूप से बुल जाती है, उसे वस्तुतत्व का भलीभांति यथातथ्यरूप मे वोध हो जाता है, वह हेय, नेय, उपादेय तत्त्वो को अन्छी तरह जान जाता है, परभाव