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अध्याता-दर्शन
हो जाती है । यह वान स्पष्ट है कि प्रवचन वाणी की प्राप्ति गम्यष्टि को ही हो सकती है, मिथ्यादृष्टि की नी। मिथ्यात्वगन्न व्यशि मेहदय प्रवचन नम्यवस्प मे परिणत न हो कर मिथ्याप मे ही प्राय परिणत होतं? मिथ्यादृष्टि प्रवननवाणी का श्रवण पर गकता है. कणं मुहरों में प्रवचनवाणी के गब्द दाल गकता है, किन्तु प्रवननवाणी की प्राप्ति वह नहीं कर पाता। क्योकि उगे प्रवचनवाणी हृदयगम नहीं होती, उगवी दृष्टि गम्या गुली न होने गे वह दिमाग में जचती नहीं, गले उत्तग्नी नहीं। लिए जो बात गर्ने न उतरे, अनेकान्त के आग्ने मे भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं में गमन में न आए.
हृदय और बुद्धि को जचे नहीं, उगे उसकी प्राप्ति नहीं कहा जा गलना। यही कारण है कि अनिवृत्तिकरण पी सम्प्राप्ति रो पहरो मिध्यादृष्टि की भूमिका में व्यक्ति को प्रवननवाणी की प्राप्ति नहीं होनी, जबकि उत्त वरमकरण की प्राप्ति के माथ ही सम्यग्दृष्टि बन जाने गे व्यनि प्रवचनवाणी की प्राप्ति भलीभांति कर लेता है।
प्रवचनवाणी की प्राप्ति का अर्थ है-वीतराग-प्रापित निवाल की वाणी की प्राप्ति अथवा मुविहित जिनागमो की वाणी की उपलब्धि । वास्तव में महामूल्य निद्धान्तो के महान् नत्यों को जान लेना, उन्हें व्यवस्थित म्प ने यथायोग्य स्थान पर सयोजन करना प्रवचनवाणी की प्राप्ति है।
प्रवचन का अर्थ-जिनदेवप्रणीत सिद्धान्त या वीतराग आप्तपुरपी द्वारा प्ररूपित प्रवचनरूप द्वादशागी (बारह अगो) होता है। प्रबनन वा मघ या चतुर्विध तीर्थ-यहां मगन नहीं है।
एमे उत्तम और वीतराग-विज्ञानपारगत आप्न-प्रवचनो की प्राप्ति वहुत बड़ी उपलब्धि है, साधक के जीवन में। ऐमे प्रवननलाभ से साधक रासार और मोक्ष का स्वरूप, हंय-जे य-उपादेय का तत्त्व, स्वपरविवेवा, आदि भलीमांति जान जाता है। शुद्धात्मभाव में रमण या सम्यग्दर्णन-बान-चारिग्रस्त मोक्षमार्ग में प्रयाण को अधिक स्थिर, परिपक्व और निश्चित कर लेता है । उसके हृदय मे ऐसे प्रवचनोक्त वचनो के प्रति श्रद्धा, प्रतीति और रुचि अधिककाधिक बढती जाती है। प्रवचनप्राप्ति मे वह शान्त, धीर, निप्पक्ष और “समतावान हो जाता है, साथ ही इसमे उसमे सहिष्णुता, रहस्यज्ञता, समझाने की चातुरी, प्रत्येक समस्या को आत्मबुद्धि मे सुलझाने की गक्ति, उपकारबुद्धि