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परमात्मा की सेवा
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। अरुचि या घृणा हो जाती है। मतलब यह है कि जव आत्मभाव-रमणता
के प्रति अरुचि होती है तो साधक के जीवन में शरीर से सम्बन्धित पदार्थोंधन, मकान, जमीन जायदाद, सन्तान, जाति अथवा सम्प्रदाय आदि के प्रति आकर्पण, राग या मोह वढ जाता है। क्योकि यह स्वाभाविक है कि जब एक पदार्थ के प्रति राग या मोह होगा तो दूसरे पदार्थ के प्रति अरुचि या घृणा होगी। वही वास्तव मे उप है। शुद्धात्मभाव के प्रति या आध्यात्मिक प्रगति के प्रति ऐसा अरोचकभाव परमात्मसेवा में बाधक है।
दूसरी दृष्टि में सोचें तो शुद्धात्मभाव की दृष्टि से स्वरूप मे रमण करने वाला साधक जव किसी जाति, धर्म सम्प्रदाय, वेप, रग, वर्ण, प्रान्त, या राष्ट्र के व्यक्ति या प्राणी के इन वाह्यस्पो-परभावो को देख कर अरुचि या घृणा प्रगट करता है, उसके प्रति अप्रीति पैदा होती है , तब वह उसके अन्दर विराजमान शुद्धात्मतत्त्व को नहीं देखता, किन्तु उसके बाह्य (शारीरिक) रूप, वेपभूषा व रहनसहन को ही देख कर उससे घृणा या अरुचि करने लगता है , यह भी परमात्मसेवा मे विघ्न है। ___अथवा दूसरी दृष्टि से कहे तो शुद्धात्मदगा मे रमणता यानी परमात्मसेवा करने वाले माधक को जीवन मे शरीर और मन के प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति या प्रतिकूल (अनिष्ट) वस्तु या व्यक्ति के प्राप्त होने पर यानी निश्चयनय की भापा मे कहे तो प्रतिकूल परभावो का सयोग उपस्थित होने पर अरुचि, अप्रीति या घृणा होना भी परमात्मसेवा मे वाधक है।।
अथवा यो भी कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति परमात्मसेवा (शुद्ध आत्मसेवा) के लिए तत्पर है, उसको अगर सर्व कर्मक्षयकरी मुक्ति के प्रति या मुक्तिमार्ग के प्रति अरुचि है , जो भवाभिनन्दी साधक इन्द्रियों के भोग-विलारा, नाचगान, खानपान आदि मे मस्त हैं, और यह सोचता है कि मुक्ति में तो ये सब चीजें हैं नही , अत उस रुखीमूखी मुक्ति से क्या लाभ ? इस तरह जो व्यक्ति मुक्ति या मुक्तिपथ का नाम सुनते ही मुंह मचकोड कर उसके प्रति घृणा और अप्रीति प्रगट करता है, तो उसका यह अरोचकभाव भी द्वेप है, जो परमात्मसेवा में बाधक है।
परमात्मसेवा मे तीसरा विघ्न : खेद आत्मा की शुद्धदशा मे रमण करने की या मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति करते