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परमात्मा की सेवा
से पूर्ण, व योग्य बनाने का मतत पुरुपार्थ करना-परमात्मदेवरूप आदर्श को न भूलना ही प्रकारान्तर से परमात्म-मेवा है। वस्तुत परमात्मसेवा शुद्ध आत्मभाव का एक आदर्श है । अत साधक के द्वारा परमात्मा के साथ स्वभावस्वल्परमणता के रूप मे अभिन्नता स्थापित करना ही परमात्म-सेवा है।
यही कारण है कि जनदर्शन परमात्मदेव-शब्द मे राग, द्वेष, अहकार आदि परभावो में पड़ने वाले, जगत् के नियन्ना-कत्ता-धर्ता-हर्ता, अच्छे-बुरे कर्म के फल प्रदान मे समर्थ किसी तथाकधित देव को आदर्श वा मेव्य नही मानता । परमात्मदेव इन सब मोहमायादि परभावो मे रहित निरजन, निराकार, अनन्तज्ञानादि गुणो मे परिपूर्ण परमगुद्ध आत्मा होते हैं।
परमात्मसेवा कैसे ? पूर्वोक्तस्वरूपयुक्त परमात्मदेव की मेवा कमे की जाय ? उन्हें क्या भेट चढाई जाय ? उनकी सेवा के लिए क्या ले कर पहुँचा जाय ? ये और ऐसे प्रश्न सेवक के सामने उपस्थित होते हैं। यह तो सर्वविदित है कि वीतराग परमात्मा किसी प्रकार की वाह्य भेंट या समार का कोई भी पदार्थ दूसरो से नहीं चाहते। परन्तु आत्मार्थी माधक जब वीतरागदेव को आदर्श मान कर उनकी सेवा करने के लिए तत्पर होता है तो परमात्मसेवा के लिए उमे अपनी आत्मा मे वैसी योग्यता प्राप्त करनी चाहिए । विना भूमिका प्राप्त किये ही कोई व्यक्ति वाह्य नाचगान, रगराग या कीर्तन-भजन आदि को ही परमात्ममेवा मान वैठेगा तो वह धोखा खाएगा। परमात्मसेवा केवल 'नाचने, गाने, या रिझाने से नहीं हो जाती , उसके लिए अपनी आत्मा मे वैसी योग्यता प्राप्त करनी जरूरी है। कोई व्यक्ति दशवी कक्षा की योग्यता प्राप्त किये बिना ही प्राइमरी मे सीधा दशवी कक्षा मे बैठ जाय तो वह सफल नहीं हो सकता, वैसे ही परमात्मसेवा की भूमिका या योग्यता प्राप्त किये बिना या मेवा का क ख ग सीख कर बीच की भूमिका पार किये विना सीधा ही परमात्मसेवा की उच्चकक्षा पर पहुँचना चाहे तो वह सफल नही हो सकता। इसीलिए परमात्मसेवा के लिए सर्वप्रथम अपना उपादान तदनुरूप शुद्ध होना जरूरी है। उपादान शुद्ध हुए विना मेव्यपुत्प-परमात्मा के प्रत्यक्ष निक्ट सम्पर्क मे रहने पर भी व्यक्ति उनने कुछ लाभ नहीं उठा सकता, वास्तविक मेवा करना तो बहुत दूर है। और न ही उनसे परोक्ष नेवा हो सकती है। इसीलिए यहाँ सेवा के लिए