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परमात्मा की मेवा
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सवाल-यह होता है कि श्रीआनन्दधनजी ने इस स्तुति मे दूसरे सब कार्य छोड कर सभी साधको को सर्वप्रथम परमात्मा की मेवा करने की प्रेरणा क्यो दी? इसका कारण यह प्रतीत होता है कि दूनरी स्तुति की अन्तिम गाथा में उन्होंने यह बता दिया कि मैं परमात्मपथ के दर्शन के विना हर्गिज हटने वाला नही, चाहे कितना ही काल क्यो न व्यतीत हो जाय, नै तव नक धैर्य या प्रतीक्षा करू गा, जब मेरी आत्मशक्ति इतनी वढ जायगी, मेरा क्षयोपशमभाव इतना तीव्रतम हो जायगा कि काल का परिपाक भी हो जायगा और एक दिन वह अवसर भी आ जायगा, जब मैं परमात्मपथ का नाक्षात्कार करके ही दम लूंगा , इसी आशा और विश्वास के साथ में बैठा हूं। अत जव साधक की परमात्मपथदर्शन की इतनी तत्परता हो जाती है, तब उसे अपने आपको परमात्मपथदर्शन के योग्य, समर्थ और कार्यक्षम बनाने के लिए सर्वप्रथम उत्साहपूर्वक परमात्ममेवा करना अनिवार्य होता है। यही कारण है कि श्रीआनन्दघनजी सभी मुमुक्षुओ, किन्तु परमात्मपप्रदर्शन से निराश माधको का व अपने को परमात्मपथदर्शन के योग्य बनाने हेतु पहले परमात्मसेवा -करने का आह्वान करते हैं ।
परमात्म-सेवा क्या है ? परन्तु नाथ ही वे कुछ साधको तथा म्बय के वेतनराज में चेतावनी के तौर पर कहते है ---परमात्मा की सेवा करने से पहले नेवा का स्वरूप तथा उसका रहस्य समझ लो । परमात्मनेवा का स्वरूप एव रहस्य समझे विना ही दुनियादार लोगो की तरह अगर परमात्मसेवा के नाम से किमी और कार्य को करने लग - जाओगे, या सेवा के साथ किमी प्रकार का राग, द्वेप, मोह, नामना-कामना, भय, लोभ, त्या किसी स्वार्थ को जोड दोगे अथवा सेव्य पुरुषका स्वरूप न समझ कर, जैसे-तैने रागी-द्वेपी, कामी, क्रोधी देव को ही देवाधि देव परमात्मा मान कर उसकी सेवा को परमात्ममेवा मान कर करने लगोगे, या परमात्मा (निरजन-निराकार शुद्ध अनन्तनानदर्शनचारित्रमय आत्मा) के वीतरागत्व या शुद्ध आत्मत्व की उपासना के बदले उनके वाह्यरूप, स्यूलप्रतीक या उनके द्वारा विहित क्रिया कलापो या उनके वाह्य अतिशय, शारीरिक वैभव की ही सेवा करने मे जुट कर उनके योथे गुणगान या कोरे कीर्तन करके ही उसे परमात्मसेवा समझ लोगे , अथवा परमात्मा के नाम से किसी व्यक्ति