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अध्यात्म-दर्शन
दूमगे की आशा और पयदर्शन की आगा में अन्ता 'यो तो 'आशा औरन की यया कीज' पद में श्रीजानन्दजी ने आमारे प्रनि उपेक्षा व्यक्त की है, लेकिन यहाँ आमा सो वढा आगर माना है, परन्तु इस आगा और उस आशा में गत-दिन का अन्नर । यर आमा गई. जिनमें पोद्गलिक बन्नुओ म्यूल या भौतिक पदार्थों का विपकी प्रान की आशा है, उनमे जागा करने वाले या यूछ हिलाने वाले पानीमा गई है। वह लगना पनपदार्थों की गुलामी है परन्तु यती आगा है-~कासनधि प्राप्त होने पर परमात्मपथ के दगंन की जागा, उनमें मिनी में मांग, गलामी या यानना नहीं की गई है, न परपदायों को प्राप्त करने की हजागा यह तो आत्मा का अपने आत्मम्वभाव में पुरुषारं कर काननधि प्राप्त होने पर परमात्मपथदशन की आशा है । उनमे आनादानी के दाम बनने में बात है, जबकि इनमें आगादानी पर विजय प्राप्त करने की बात है । चाननज (आत्मा) को इस प्रकार की आशा के अवलम्बन के सिवाय और कोई नारा ही नहीं है।
जीवन का माधार . भौतिक या आत्मिक ? श्रीआनन्दवनजी आने कहते हैं-टनी आशा के आधार पर मुझ मगेना साधकजन जीवन जी रहा है। साधक-जीवन रे निए ममारी जीवो की तरह धन-सम्पत्ति, संतति सुख-मामग्री आदि जीने के आधार नहीं होते, उसके जीन का आधार आध्यात्मिक होता है । क्योकि साधक को जब तक पूर्णमुद आत्मदशा की प्राप्ति नहीं हो जाती, जब तक का जितना कान है, उन फान को वह आत्मशक्ति उपलब्ध करने में विताता है, वह स्वभावरमण मे पुन्पाय करते करते ही अपना जीवन पूर्ण करता है, उनके जीवन जीने का आधार. आत्मिक होता है । आत्मसाधना करना, आत्मस्वरूप जानना आत्मशक्ति प्राप्त करना आत्मशक्ति प्राप्त करने के लिए साधन-मामग्री जुटाना व उमका समुचित उपयोग करना ही उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य होता है।
इसी दृष्टि मे श्रीआनन्दघनजी के अन्तर का स्वर गूंज उठना है"ए जन जीवेरे जिनजी! जाणजो रे .. "
आनन्दघन-मत-अम्ब के सम्बन्ध मे योगी श्रीआनन्दघनजी ने अपना कोई मत, पथ, मम्प्रदाय या गच्छ नहीं